वीतरागीदेव–गुरु–शास्त्र उपर भक्तिनो प्रशस्त राग आव्या विना रहेशे नहि. भगवाननी भक्तिना भावनो
निषेध करीने जे खावा–पीवा वगेरेना भूंडा रागमां जोडाय ते तो मरीने दुर्गतिमां जशे. वीतरागी आत्मानुं लक्ष
थाय अने आकरा राग न टळे ए केम बने? मारुं स्वरूप ज्ञान छे, राग मारुं स्वरूप नथी एम जे सत्यने जाणे
ऊछळे छे. छतां त्यां ते जाणे छे के आ राग छे, आ कांई धर्म नथी. अंतरमां शुद्ध चिदानंदस्वरूपने जाणीने ते
प्रगट कर्या विना जन्म–मरण टळशे नहि.
जुओ... धर्मनी आ यथार्थ वात मळवी बहु मोंघी छे.. बाह्य साधु थईने बधुं छोडी जंगलमां जईने
नीराळा आत्मस्वभावनी श्रद्धा करे तो धर्म थाय; ए सिवाय बहारथी कांई मळे तेम नथी.–आवुं भान करवुं ते
ज सीमंधरभगवाननी साची भक्ति छे ने ए भक्तिनुं फळ मुक्ति छे.
भगवानपणुं जेने गोठव्युं छे ते बाह्यमां वीतरागी प्रतिबिंबमां भगवानते स्थापे छे. पोताना भावनो
निक्षेप करीने कहे छे के ‘आ भगवान छे.’ त्यां भाव तो पोतानो छे ने! प्रतिष्ठा पछी ज्यारे सीमंधर
भगवान जिनमंदिरमां पधारता हता त्यारे भक्तो कहेता हता के पधारो... भगवान पधारो! हे
भगवान... आपने अमे अहीं पधरावीए छीए... एटले हवे अंदरथी आपना जेवुं स्वरूप छे ते प्रगट्ये
भगवानपणुं गोठयुं छे ते निमित्तमां ‘आ भगवान छे’ एम स्थापे छे... ते अंदरना भगवानने
स्वीकारतो... भगवानपणुं प्रगट कर्या विना रहेशे नहि. अहो! जे क्षणे आत्मामां भगवानपणुं प्रगटे ते
घडी ने ते पळने धन्य छे... आवी भावना कोने जागे? –के जेने अंतरमां भगवान जेवो पोतानो
स्वभाव भास्यो होय तेने आवी भावना थाय, ने ते अल्पकाळे भगवान थया विना रहे नहि.
सर्वज्ञदेव वीतराग बिंब छे तेवो ज आत्मानो स्वभाव छे. –आवा लक्षसहित वीतराग भगवाननी
भक्ति वगेरेनो राग आवे ते सवारनी संध्या जेवो छे. जेम सवारनी संध्या पाछळ सूर्य ऊगे छे ने
वगेरेनो जे शुभराग छे ते सवारनी संध्या जेवो छे, तेनी पाछळ झळहळतो चैतन्य सूर्य ऊगवानो छे.
जेने वीतरागतानुं लक्ष नथी, वीतरागदेवनी भक्ति नथी अने एकला शरीरादि जडना रागने ज पोषे
छे तेने तो ते संध्या पाछळ अंधारुं आवशे, तेनाथी चैतन्यसूर्य ढंकाई जशे. ज्यां स्वभावनुं लक्ष छे
त्यां वर्तमान रागनी रातपनी मुख्यता नथी; पण, आ राग मारुं स्वरूप नथी–एम वीतरागस्वरूपना
लक्षे ते राग टळीने चैतन्यप्रकाश प्रगटशे ने पूर्ण केवळज्ञान थशे.