Atmadharma magazine - Ank 090
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १३० : आत्मधर्म : ९०
पणे पूरुं छे. आथी, पोताना सम्यक् श्रद्धा वगेरे गुणो प्रगट करवा माटे क्यांय बहारमां–देव–गुरु–शास्त्र वगेरे
सामे–नथी जोवुं पडतुं, पण पोतानो स्वभाव ज वर्तमान पूर्ण विद्यमान छे तेमां अंर्त मुख थईने तेनो आश्रय
करतां सम्यक् श्रद्धा वगेरे प्रगट थाय छे.
आखा लोकनां बधां ज्ञेयोने ज्ञायक अंर्त तत्त्वथी भिन्न जाणीने, अंर्तस्वभाव तरफ वळीने आत्मानी
प्रतीति करे तो अव्यक्त आत्मानी श्रद्धा थई कहेवाय.
आ रीते, अव्यक्तनो पहेलो बोल कह्यो.
* * * * *
हवे अव्यक्तनो बीजो बोल कहे छे:
‘कषायोनो समूह जे भावकभाव व्यक्त छे तेनाथी जीव अन्य छे माटे अव्यक्त छे.’ आत्मानी क्षणिक
अवस्थामां जे कषायभाव थाय तेनाथी पण आत्मानो स्वभाव जुदो छे, तो पछी पर वस्तुथी आत्मा जुदो छे ए
वात तो तेमां आवी ज जाय छे. कषायभावोथी आत्मा जुदो छे–एम कहेतां ज निमित्त वगेरे पर द्रव्योनी उपेक्षा
करीने आत्मा तरफ वळवानुं ज आव्युं; केमके कषायभाव हंमेशां पर द्रव्यना अवलंबने ज थाय छे. कषायभावो बाह्य
पदार्थोना अवलंबने थता होवाथी तेने व्यक्त कह्या, आत्माना अंतरस्वभावना आश्रये कषायभावनी उत्पत्ति थती
नथी तेथी ते अव्यक्त छे. कषायभावोथी जीव अन्य छे–एम अहीं कह्युं तेमां स्वद्रव्य तरफ वळवानुं ज आवे छे.
जुओ! वीतरागपणुं ते शास्त्रनुं तात्पर्य छे, राग थाय ते तात्पर्य नथी. हवे, ‘राग तात्पर्य नथी’ एम
कहेतां ज पर द्रव्यना आलंबननी उपेक्षा करवानुं ज आवी जाय छे; केम के पर द्रव्यना अवलंबने राग ज थाय
छे. वीतरागता तो स्वद्रव्यना अवलंबने ज थाय छे. माटे वीतरागताने तात्पर्य कह्युं तेमां पर द्रव्योथी उपेक्षा
करीने स्वद्रव्यनुं अवलंबन करवानुं ज कह्युं छे.
कोई एम माने के ‘देव, गुरु, के शास्त्र वगेरे निमित्तोनी उपेक्षा न करवी जोईए’–तो ते जीव वीतरागी
तात्पर्यने समज्यो नथी. वीतरागता क्यारे थाय? के स्वद्रव्यनो आश्रय करे त्यारे. देव–गुरु–शास्त्र पण खरेखर तो
पर द्रव्य ज छे, ने पर द्रव्यना अवलंबने रागनी ज उत्पत्ति थाय छे, तेथी, ‘पर द्रव्यनुं अवलंबन न छोडवुं–उपेक्षा
न करवी’ एम जेणे मान्युं तेणे रागने ज तात्पर्य मान्युं, पण वीतरागताने तात्पर्य न मान्युं. जे जीव वीतरागताने
तात्पर्य स्वीकारे ते जीव पर द्रव्यनुं अवलंबन करवा जेवुं माने नहि. वीतरागताने ज तात्पर्य माननार जीवने पर
द्रव्यना आलंबननी रुचि छूटीने स्व द्रव्यना ज आलंबननी रुचि होय. एटले ‘शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता छे’ एम
कहेतां ज तेमां ‘स्व द्रव्यनी अपेक्षा ने समस्त पर द्रव्यथी उपेक्षा’ करवानुं आवी ज जाय छे.
वीतरागताने तात्पर्य कहेतां, ते वीतरागतामां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे समाई जाय छे.
सम्यग्दर्शन ते पण वीतरागतावाळुं छे, ने ते स्वद्रव्यना आदरथी ज थाय छे. कोई देव–गुरु वगेरे परना
आदरथी के रागथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी पण एकला स्व स्वभावना आदरथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे. ए
प्रमाणे सम्यग्ज्ञान पण वीतरागभाव छे ने ते पण स्वद्रव्यना आदरथी ज थाय छे; तेम ज सम्यक् चारित्र पण
वीतरागभाव छे ने ते पण एकला स्वद्रव्यना अवलंबने ज थाय छे. केवळज्ञान पण स्वद्रव्यना ज आदर अने
आश्रयथी थाय छे. आ रीते साधकदशानी शरूआतथी मांडीने ठेठ केवळज्ञान सुधीना निर्मळ भावो स्वद्रव्यना
आश्रयथी ज थाय छे. पर्यायना के परद्रव्यना आदरथी कोई वीतरागभाव थता नथी पण राग ज थाय छे.
ए रीते, ‘वीतरागता’ ते स्वद्रव्यनो ज आदर करावे छे केम के स्वद्रव्यना आदरथी ज वीतरागता थाय
छे. पर द्रव्य–निमित्त के पर्यायना आदरथी वीतरागता थती नथी पण राग थाय छे माटे ते कोईनो आश्रय
करवो ते तात्पर्य नथी. वीतरागता ते स्वद्रव्यना अवलंबननो भाव छे ने राग ते परद्रव्यना अवलंबननो
भाव छे. वीतरागतानुं कारण स्वद्रव्य, ते कारण अने कार्य बंने वर्तमानमां ज समाय छे.
वर्तमान वर्ततुं आखुं द्रव्य ते कारण, ने ते द्रव्यना आधारे प्रगटेली वीतरागी पर्याय ते कार्य; आ
सिवाय आत्माने पर करे के आत्मा परनुं करे एम जेणे मान्युं तेणे वस्तुने जाणी नथी.
(१) ईश्वरे जीवने बनाव्यो एम जेणे मान्युं तेणे आखा तत्त्वनो कर्ता परनो मान्यो, एटले आखा
तत्त्वने पराधीन मान्युं.