सामे–नथी जोवुं पडतुं, पण पोतानो स्वभाव ज वर्तमान पूर्ण विद्यमान छे तेमां अंर्त मुख थईने तेनो आश्रय
करतां सम्यक् श्रद्धा वगेरे प्रगट थाय छे.
‘कषायोनो समूह जे भावकभाव व्यक्त छे तेनाथी जीव अन्य छे माटे अव्यक्त छे.’ आत्मानी क्षणिक
वात तो तेमां आवी ज जाय छे. कषायभावोथी आत्मा जुदो छे–एम कहेतां ज निमित्त वगेरे पर द्रव्योनी उपेक्षा
करीने आत्मा तरफ वळवानुं ज आव्युं; केमके कषायभाव हंमेशां पर द्रव्यना अवलंबने ज थाय छे. कषायभावो बाह्य
पदार्थोना अवलंबने थता होवाथी तेने व्यक्त कह्या, आत्माना अंतरस्वभावना आश्रये कषायभावनी उत्पत्ति थती
नथी तेथी ते अव्यक्त छे. कषायभावोथी जीव अन्य छे–एम अहीं कह्युं तेमां स्वद्रव्य तरफ वळवानुं ज आवे छे.
छे. वीतरागता तो स्वद्रव्यना अवलंबने ज थाय छे. माटे वीतरागताने तात्पर्य कह्युं तेमां पर द्रव्योथी उपेक्षा
करीने स्वद्रव्यनुं अवलंबन करवानुं ज कह्युं छे.
पर द्रव्य ज छे, ने पर द्रव्यना अवलंबने रागनी ज उत्पत्ति थाय छे, तेथी, ‘पर द्रव्यनुं अवलंबन न छोडवुं–उपेक्षा
न करवी’ एम जेणे मान्युं तेणे रागने ज तात्पर्य मान्युं, पण वीतरागताने तात्पर्य न मान्युं. जे जीव वीतरागताने
तात्पर्य स्वीकारे ते जीव पर द्रव्यनुं अवलंबन करवा जेवुं माने नहि. वीतरागताने ज तात्पर्य माननार जीवने पर
द्रव्यना आलंबननी रुचि छूटीने स्व द्रव्यना ज आलंबननी रुचि होय. एटले ‘शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता छे’ एम
कहेतां ज तेमां ‘स्व द्रव्यनी अपेक्षा ने समस्त पर द्रव्यथी उपेक्षा’ करवानुं आवी ज जाय छे.
आदरथी के रागथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी पण एकला स्व स्वभावना आदरथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे. ए
प्रमाणे सम्यग्ज्ञान पण वीतरागभाव छे ने ते पण स्वद्रव्यना आदरथी ज थाय छे; तेम ज सम्यक् चारित्र पण
वीतरागभाव छे ने ते पण एकला स्वद्रव्यना अवलंबने ज थाय छे. केवळज्ञान पण स्वद्रव्यना ज आदर अने
आश्रयथी थाय छे. आ रीते साधकदशानी शरूआतथी मांडीने ठेठ केवळज्ञान सुधीना निर्मळ भावो स्वद्रव्यना
आश्रयथी ज थाय छे. पर्यायना के परद्रव्यना आदरथी कोई वीतरागभाव थता नथी पण राग ज थाय छे.
करवो ते तात्पर्य नथी. वीतरागता ते स्वद्रव्यना अवलंबननो भाव छे ने राग ते परद्रव्यना अवलंबननो
भाव छे. वीतरागतानुं कारण स्वद्रव्य, ते कारण अने कार्य बंने वर्तमानमां ज समाय छे.