Atmadharma magazine - Ank 090
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४७७ : १३१ :
(२) ईश्वरे जीवने बनाव्यो–एम तो न माने, पण निमित्त आवे तेवी पर्याय थाय–एम जेणे वर्तमान
पर्यायनो कर्ता परने मान्यो तेणे पोताना वर्तमानने स्वतंत्र न मान्युं, वर्तमानने ऊडाडतां द्रव्यने पण ऊडाडयुं.
एटले तेनी श्रद्धा पण मिथ्या छे.
(३) रागादि भाव पर निमित्तथी थाय–एम न माने, पण पोतानी लायकातथी रागादि थाय छे एम
माने; परंतु ए राग जेटलो ज आत्मा माने–अर्थात् रागथी लाभ माने तो तेणे य लाभना कारणरूप एवा
आखा द्रव्यने ऊडाडयुं; केम के लाभनुं कार्य तो द्रव्यना आश्रये थाय छे तेने न मानतां रागना आश्रये लाभ
मान्यो, तो तेनी मान्यतामां रागे ज आखा द्रव्यनुं कार्य कर्युं एटले राग सिवाय बीजुं द्रव्य न रह्युं.
मिथ्या श्रद्धा थाय छे.
भावना माटे कषाय काम आवतो नथी. अशुभ तेम ज शुभ–ए बंने भावो कषायनो ज प्रकार छे. आत्मा
त्रिकाळी सामर्थ्यवाळो छे ने कषायो एक क्षण रहेनारा छे. आत्मद्रव्य कषायथी अनेरुं छे, एटले द्रव्यस्वभावनी
भावनाथी कषाय नाश पामी जाय छे.
पर वस्तुथी के पर वस्तुना लक्षे थता कषायभावोथी आत्मानो परमार्थ स्वभाव अनुभवमां आवतो
नथी; माटे स्वद्रव्य अपेक्षा करवा जेवुं छे ने परद्रव्यो उपेक्षा करवा जेवा छे. कषाय पर द्रव्यना लक्षे थाय छे माटे
तेनाथी स्वद्रव्य अनेरुं छे. स्वद्रव्य ते ज सम्यक्त्वादिनुं बीज छे. परद्रव्यना आश्रये कषाय थाय छे ने स्वद्रव्यना
आश्रये वीतरागता थाय छे.
‘जेनी भावनाथी जे भाव थाय ते भाव तेनो ज छे.’ स्वद्रव्यनी भावनाथी जे भाव थाय ते भाव स्व–
द्रव्यनो छे, ते वीतरागी भाव छे. अने परद्रव्यनी भावनाथी जे भाव थाय ते भाव परमार्थे परद्रव्यनो छे,–ते
राग भाव छे. आ रीते बे ज विभाग पाडीने रागने पण परद्रव्यमां गणी नाख्यो. रागभाव खरेखर स्वद्रव्यनो
स्वभाव नथी माटे स्वभावद्रष्टिथी तो ते परद्रव्यनो ज भाव छे.
शास्त्रनुं तात्पर्य वीतरागता छे; ते वीतरागतापणे परिणमनारुं द्रव्य छे. रागनी भावना करवाथी द्रव्य
वीतरागतापणे परिणमतुं नथी, पण द्रव्यनी भावना करवाथी ज ते वीतरागतापणे परिणमे छे. वीतराग
पर्यायना आश्रये वीतरागता थती नथी पण द्रव्यना आश्रये वीतरागी पर्याय थाय छे. पर्याय तो क्षणिक छे, ने
द्रव्य धु्रव छे. जे धु्रव टकती चीज होय तेनी भावना भवाय.
स्वद्रव्यनी भावना करे तो ते तरफ वळीने एकाग्र थई शकाय छे ने वीतरागभाव प्रगटे छे. पर द्रव्यनी
के पर्यायनी भावना करे तो तेनाथी स्वद्रव्य तरफ वळातुं नथी पण रागभाव ज थाय छे. माटे हे भाई! तुं
स्वद्रव्यना अवलंबन तरफ वळीने स्वद्रव्यने ज वीतरागतानुं कारण बनाव. सर्व शास्त्रोनुं प्रयोजन वीतरागता
छे ते वीतरागता स्वद्रव्यना आश्रये ज सधाय छे, माटे स्वद्रव्यनो आश्रय ए ज सर्व शास्त्रोनुं तात्पर्य थयुं.
पर्याय प्रगटवानुं सामर्थ्य द्रव्यमां छे, एक पर्यायमां बीजी पर्यायने प्रगट करवानुं सामर्थ्य नथी. एक
राग पर्यायमांथी बीजी रागनी पर्याय पण नथी आवती तो पछी ते रागमांथी वीतरागता तो क्यांथी आवे?
पर्यायना अवलंबने तो रागनी ज उत्पत्ति थशे. धु्रव द्रव्य आखुं वर्तमान छे. तेनो आश्रय करतां ते धु्रव कारण
थईने तेमांथी वीतरागी पर्याय थया करशे.–आम एकला स्वद्रव्य तरफ वळीने तेनुं आलंबन करवुं ते ज आ
बधा बोलनुं तात्पर्य छे.
‘अव्यक्त’ना छ बोलमां जुदा जुदा पडखेथी वर्णन कर्युं छे पण तेमनो सरवाळो तो एक ज छे; छए
प्रकारो स्वद्रव्यना अवलंबन तरफ वळवानुं ज बतावे छे. एक बोलमां कांईक बताव्युं ने बीजा बोलमां तेनाथी
जुदुं बीजुं बताव्युं–एम नथी; छ बोलना छ जुदा जुदा तात्पर्य नथी पण छए बोलनुं तात्पर्य एक ज छे. शैली
फेरवीने पण बधा बोलमां एक स्वद्रव्यनुं ज अवलंबन बताव्युं छे. जे स्वद्रव्यना अवलंबन तरफ वळ्‌यो ते
बधा बोलनुं रहस्य समजी गयो.
आ तो जेने आत्मानुं कल्याण करवुं होय तेने माटे अपूर्व वात छे. आवो आत्मा समज्ये ज कल्याण छे.
ऊंधी श्रद्धाने लीधे आत्मा अनादिथी चोराशीना