Atmadharma magazine - Ank 090
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४७७ : १३३ :
के द्रव्यनी शक्तिने न माने तो ते केवळीने यथार्थ न मानी शके.
एकेक समयनी पर्याय प्रगटे छे ते व्यक्त छे, ते पर्यायमां आखुं द्रव्य प्रगटी जतुं नथी पण ते तो
शक्तिरूप रहे छे तेथी ते अव्यक्त छे. जो क्षणिक पर्यायमां ज आखुं तत्त्व प्रगटी जाय तो तो बीजी क्षणनी
पर्याय शेमांथी आवशे?–बीजी क्षणे तो तत्त्वनो नाश थई जशे! माटे क्षणिक पर्याय जेटलो ज आत्मा नथी, पण
भगवान आत्मा अव्यक्त छे. आत्माने–‘अव्यक्त’ कह्यो तेनो अर्थ एम न समजवो के ते ज्ञानमां जणातो
नथी. ज्ञानमां तो ते पूरेपूरो जणाय छे तेथी ते अपेक्षाए तो ज्ञानमां ते व्यक्त छे. पण क्षणिक पर्यायमां पोते
आखो आवी जतो नथी माटे तेने अव्यक्त विशेषणथी ओळखाववामां आवे छे.
पर्याय छे त्यारे तो ‘पर्याय जेटलो आत्मा नथी’ एम कह्युं, जे पर्यायने सर्वथा न ज माने तेने तो ‘आत्मा
पर्याय छेजेटलो नथी’–एम पण कहेवानुं रहेतुं नथी. पर्याय तो खरी, पण ते पर्यायबुद्धिथी जोनारने आखी वस्तु
द्रष्टिमां आवती नथी. तेथी पर्यायनी बुद्धि छोडावीने वस्तुनी द्रष्टि कराववा कह्युं के आत्मा क्षणिक पर्याय मात्र नथी.
आखी वस्तु अव्यक्त छे, ते वस्तुनी द्रष्टि करो. पर्याय तो क्षणिक बदलती छे, तेना आश्रये तो क्षणिक व्यक्तिनी ज
प्रतीत थशे पण आखुं तत्त्व प्रतीतमां नहि आवे केम के तत्त्व क्षणिक व्यक्ति मात्र नथी; एक पर्याय उपरथी लक्ष
छूटी जवा छतां अंतरमां द्रव्यनुं अवलंबन छूटतुं नथी माटे आत्मा क्षणिक पर्याय जेटलो व्यक्त नथी पण अव्यक्त
छे. एवा त्रिकाळी आखा अव्यक्त आत्मानी प्रतीत करवी ते ज सम्यक्श्रद्धा छे.
–ए प्रमाणे ‘अव्यक्त’नो चोथो प्रकार थयो.
* * * * *
हवे अव्यक्तनो पांचमो प्रकार समजावे छे–
‘व्यक्तपणुं तथा अव्यक्तपणुं भेळां मिश्रितरूपे तेने प्रतिभासवा छतां पण तेकेवळ व्यक्तपणाने
स्पर्शतो नथी माटे अव्यक्त छे.’ वर्तमान व्यक्त पर्याय ते कार्य छे, ने धु्रव अव्यक्त ते कारण छे, ए कारण अने
कार्य बंने वर्तमानमां एक साथे छे, तेमने काळभेद नथी ने ते बंनेना ज्ञाननो पण काळ भेद नथी. द्रव्य–पर्याय
बंने एक साथे छे अने ज्ञानमां ते बंने एक साथे प्रतिभासे छे. बंने एक साथे जणावा छतां एकली पर्यायने ज
जाणतो नथी माटे आत्मा अव्यक्त छे.
वस्तुमां व्यक्तपणुं अने अव्यक्तपणुं बंने एक साथे छे, अने ज्ञान–पर्यायमां द्रव्य–पर्याय बंनेने एक
साथे जाणवानुं सामर्थ्य छे. एक पर्यायना सामर्थ्यने जाणतां द्रव्य–पर्याय बंनेनुं ज्ञान पण भेगुं आवी जतुं
होवा छतां, एकली पर्यायने ज जाणतो नथी, पण द्रव्यना ज्ञानसहित पर्यायनुं ज्ञान करे छे. जुओ, सम्यक् श्रद्धा
ज्ञान पर्याय छे ते आखा द्रव्यने कबूले छे, एटले ते पर्यायने जाणतां तेना विषयरूप आखा द्रव्यनुं ज्ञान पण
तेमां आवी जाय छे–परंतु तेथी ‘ज्ञान एकली व्यक्त पर्यायने ज जाणे छे ने अव्यक्त द्रव्यने नथी जाणतुं’ –एम
नथी. ज्ञान तो अव्यक्त द्रव्य अने व्यक्त पर्याय–बंनेने जाणे छे. ज्ञानमां द्रव्य–पर्याय बंने एक साथे जणातां
होवा छतां, ते ज्ञान अव्यक्त द्रव्यनी तरफ वळीने ते द्रव्यना ज्ञान सहित पर्यायने जाणे छे. एकली व्यक्त
पर्यायने जाणतां परमार्थ आत्मा जणातो नथी पण अव्यक्त द्रव्यना ज्ञान सहित पर्यायने जाणनारा ज्ञानमां ज
आत्मा जणाय छे–तेथी ते अव्यक्त छे.
जेम केवळज्ञानने जाणतां लोकालोकनां ज्ञेयोनुं ज्ञान पण थई जाय छे तेम एक पर्यायना सामर्थ्यने
जाणतां तेमां द्रव्य–पर्याय बन्नेनुं ज्ञान आवी जतुं होवा छतां एकली पर्यायने ज आत्मा नथी जाणतो माटे ते
अव्यक्त छे. एकली पर्यायने जाणतां भगवान आत्मानुं स्वरूप जणातुं नथी, पण द्रव्यना ज्ञान सहित पर्यायने
जाणे तो भगवान आत्मानुं स्वरूप जणाय छे.
ए रीते अव्यक्तना पांच बोल कह्या; हवे छेल्लो बोल कहे छे.
* * * * *
‘पोते पोताथी ज बाह्य–अभ्यंतर स्पष्ट अनुभवाई रह्यो होवा छतां पण व्यक्तपणा प्रति उदासीनपणे
प्रद्योतमान (प्रकाशमान) छे माटे अव्यक्त छे.’
कोईने एम थाय के परने जाणतां पर सन्मुख थईने जाणतो हशे! तो कहे छे के ना; परने य जाणतो
होवा छतां आत्मा पर प्रत्ये उदासीनपणे रहीने अने स्वसन्मुख रहीने परने जाणे छे. स्वने जाणतां परनुं