Atmadharma magazine - Ank 090
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १३४ : आत्मधर्म : ९०
पण ज्ञान थई जाय छे. स्वनुं ने परनुं प्रत्यक्ष ज्ञान थाय छे छतां पोते स्वद्रव्य तरफ ज नियतपणे वर्ते छे ने
व्यक्त एवा परज्ञेयो प्रत्ये उदासीनपणे वर्ते छे, ज्ञेयोना अभावपणे पोते वर्ते छे माटे आत्मा अव्यक्त छे.
एक समयना प्रत्यक्ष ज्ञानमां तो आखी वस्तु जणाई जाय छे; पण एक समयनी पर्यायमां आखुं द्रव्य
प्रगटी जतुं नथी, ए अपेक्षाए भगवान आत्मा अव्यक्त छे. अव्यक्त होवा छतां ज्ञानमां प्रत्यक्ष छे, ने
ज्ञानमां प्रत्यक्ष होवा छतां अव्यक्त छे.
छ प्रकारथी ‘अव्यक्त’ कहीने भगवान आत्माने ज्ञायक बताव्यो.
पहेला बोलमां, ज्ञेयोथी जुदो छे माटे अव्यक्त कह्यो.
बीजा बोलमां, विकारथी जुदो छे माटे अव्यक्त कह्यो.
त्रीजा बोलमां, पर्यायने द्रव्यमां अभेद करीने अव्यक्त कह्यो.
चोथा बोलमां, क्षणिक पर्यायने जुदी पाडीने लक्षमां ल्ये तो तेनो निषेध करीने अव्यक्त कह्यो.
पांचमा बोलमां, एकली पर्यायने ज जाणतो नथी माटे अव्यक्त कह्यो. छठ्ठा बोलमां परनी सन्मुख
रहीने परने जाणतो नथी पण परथी उदासीनपणे प्रकाशमान छे तेथी अव्यक्त कह्यो.
–ए रीते छ बोल द्वारा अव्यक्त कहीने भगवान आत्मानुं परमार्थ स्वरूप बताव्युं; तेवा आत्माने
ओळखीने श्रद्धा करवी ते प्रथम धर्म छे.
श्री जैनदर्शन शिक्षणवर्ग
उनाळानी रजाओ दरमियान वैशाख सुद प शुक्रवार ता. ११–५–५१ थी वैशाख वद १ सोमवार ता. ४–
६–५१ सुधी जैनदर्शनना अभ्यास माटे एक शिक्षणवर्ग खोलवामां आवशे. १२ वर्षनी उपरना जैन भाईओने
वर्गमां दाखल करवामां आवशे. शिक्षणवर्गमां दाखल थनारने माटे भोजन तथा रहेवानी सगवड श्री जैन
स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट तरफथी थशे. आ शिक्षणवर्गमां दाखल थवा ईच्छा होय तेमणे नीचेना सरनामे सूचना
मोकली देवी अने ता. १०–५–५१ ना रोज हाजर थई जवुं.
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ (सौराष्ट्र)
(विद्यार्थीओए पोतानुं बिछानुं साथे लाववुं)
धन्य हो, ते राजमार्गी मुनीवरोने!
[दीक्षाकल्याणकना प्रवचनमांथी]
अहो, धन्य ए मुनिदशा! मुनिओ कहे छे के अमे तो चिदानंद स्वभावमां झूलनारा छीए; अमे आ
संसारना भोग खातर अवतर्या नथी. मुनिदशामां निर्ममत्वपणे एक मात्र शरीर होय छे, केम के शरीर हठपूर्वक
छोड्युं जतुं नथी. खरेखर तो संसार त्याग करती वखते ज निश्चय प्रत्याख्याननी प्रतिज्ञा करी तेमां आहारनी
वृत्तिनुं पण प्रत्याख्यान कर्युं हतुं. पंच महाव्रतनी शुभ वृत्ति पण न करवी ने चैतन्यना अनुभवमां लीन थवुं–
एवी ज भावना हती. पण पाछळथी आहारादिनी वृत्ति ऊठतां मुनि विचारे छे के–अरे, मारा निश्चय
प्रत्याख्यानमां भंग पड्यो. अप्रमत्तपणे आत्मअनुभवमां ठरवानी प्रतिज्ञा हती ने विकल्पनुं प्रत्याख्यान कर्युं
हतुं, –ए रीते पूर्ण दशानी ज भावना हती, पण अप्रमत्तपणे आत्मामां स्थिर न रहेवायुं ने आहारनी वृत्ति
ऊठी तेटले अंशे मारा निश्चय प्रत्याख्यानमां भंग पड्यो छे. माटे हुं तेनुं प्रतिक्रमण करीने निश्चय प्रत्याख्याननी
संधी जोडी दउं छुं. श्री जयधवलाकार कहे छे के संतो तो स्वरूपमां ठरवाना ज कामी हता–निश्चय प्रत्याख्याननी
ज प्रतिज्ञा हती, छतां स्वरूपमां पूर्णपणे न ठरायुं तेथी आ आहारादिनी वृत्ति ऊठी; तेने संतो दोष तरीके समजे
छे. पंच महाव्रतना शुभ विकल्पो पण पुण्यास्रव छे. ते करवानी मुनिनी भावना नथी. छतां ते वृत्ति ऊठे छे तो
तेने निश्चय प्रत्याख्यानमां दोषरूप जाणीने छोडे छे,–तेनुं प्रतिक्रमण करीने पाछा स्वरूपमां ठरे छे. –आवी
संतमुनिओनी दशा होय छे. सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा चैतन्यस्वरूपमां न ठर्या होय त्यारे पण तेमने सर्व भावोथी
उदासीनता तो होय ज छे. पछी चैतन्यमां ठरवानां टाणां आवतां बाह्य–अभ्यंतर सर्व परिग्रह छूटी जाय छे.
देहनो संयोग रहे छे पण तेना प्रत्येनी मूर्छा छोडी दीधी छे. चौद ब्रह्मांडना मुनिओनी दशा सदा आवी ज होय
छे, वस्त्र के पात्रना परिग्रहनी वृत्ति तेमने कदी होती नथी; छठ्ठा–सातमा गुणस्थाननी भूमिकानो आवो
स्वभाव छे. आ ज अनंत संतोए पोते पाळेलो अने कहेलो मुक्तिनो राजमार्ग छे. एवा मुक्तिना राजमार्गे
चालवा शांतिनाथ भगवान आजे तैयार छे....