Atmadharma magazine - Ank 091
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४७७ : १४९ :
व्यवहार कोनो? निश्चय वगरनो व्यवहार ते तो व्यवहाराभास छे.
श्री आचार्यभगवाने आ टीकानुं नाम ‘आत्मख्याति’ राख्युं छे. आत्मख्याति एटले आत्मानी प्रसिद्धि.
एकरूप शुद्ध आत्मानी प्रसिद्धि करवी ते आ टीकानुं मुख्य प्रयोजन छे, नवतत्त्व बताववानुं मुख्य प्रयोजन
नथी. आ ग्रंथमां नवतत्त्वोनुं वर्णन आवशे खरुं पण तेमां मुख्यता तो एकरूप शुद्ध आत्मा ज बताववानी छे.
ए रीते आचार्यदेवना कथनमां शुद्ध आत्मानी मुख्यता छे, तेथी श्रोताओए पण अंतरमां एकरूप शुद्ध आत्माने
लक्षमां पकडवानी मुख्यता राखीने श्रवण करवुं जोईए. वच्चे विकल्प अने भेदनुं वर्णन आवे तेनी मुख्यता
करीने न अटकतां, शुद्ध आत्माने ज मुख्य करीने लक्षमां लेवो जोईए. नवतत्त्वने जाणवानुं प्रयोजन तो आत्मा
तरफ वळवुं ते ज छे.
नवतत्त्वमां जीवने खरेखर क्यारे मान्यो कहेवाय?–के नवना भेदनुं वलण छोडीने एकरूप जीवस्वभाव
तरफ वळे तो जीवने मान्यो कहेवाय. आस्रव–बंध–तत्त्वने क्यारे मान्यां कहेवाय?–के तेमना अभावरूप
आत्मस्वभावने माने तो आस्रव–बंधने मान्यां कहेवाय. संवर–निर्जरा–मोक्षतत्त्वने क्यारे मान्या कहेवाय? के
स्वभाव तरफ वळीने अंशे संवर–निर्जरा प्रगट करे तो संवरादिने मान्यां कहेवाय. ए रीते, नवतत्त्वने जाणीने
जो अभेद आत्मा तरफ वळे तो ज नवतत्त्वने खरेखर जाण्यां कहेवाय; जो अभेद आत्मा तरफ न वळे ने
नवतत्त्वोना विकल्पमां ज अटकी जाय तो नवतत्त्वने खरेखर जाण्यां कहेवाय नहि.
नवतत्त्वनी श्रद्धा पण अभेद आत्माना अनुभवमां काम आवती नथी; पहेलांं नवतत्त्व संबंधी विकल्प
होय छे पण अभेद आत्मानो अनुभव करतां ते विकल्पो टळी जाय छे. नवतत्त्वनुं ज्ञान रही जाय छे पण
एकरूप आत्माना अनुभव वखते नवतत्त्वना विकल्पो होता नथी. आवो अनुभव प्रगटे त्यारे चोथुं गुणस्थान
एटले धर्मनुं पहेलुं पगथीयुं कहेवाय छे. आ सिवाय बाह्य क्रियाथी के पुण्यथी धर्मनी शरूआत थती नथी.
अहीं बहारनी क्रियानी तो वात नथी, अंतरमां नवतत्त्वना विचार करवा ते पण अभेदस्वरूपना
अंर्त–अनुभवमां वळवा माटे काम आवता नथी. अभेद आत्मामां वळवुं ते नवतत्त्वने जाणवानुं प्रयोजन छे,
एटले जो विकल्प तोडीने आत्मामां एकाग्र थाय तो नवतत्त्वने जाण्या कहेवाय. बंधतत्त्वने क्यारे जाण्युं
कहेवाय?–के तेनाथी छूटो पडे त्यारे. ‘आ बंध छे, आ बंध छे’ एम गोख्या करे पण जो बंधनथी छूटो न पडे
तो खरेखर बंधने जाण्युं न कहेवाय. तेम नवतत्त्वने क्यारे जाण्या कहेवाय? जो नवतत्त्वनी सामे ज जोया करे
तो नवतत्त्वनुं यथार्थ ज्ञान न थाय, ने आत्मानुं ज्ञान पण न थाय. जो आत्मस्वभाव तरफ वळे तो ज
नवतत्त्वोनुं यथार्थ ज्ञान थयुं कहेवाय; केम के आत्मा तरफ वळे ते ज्ञानमां ज स्व–परने जाणवानुं सामर्थ्य होय
छे. अजीव सामे जोया करवाथी अजीवनुं साचुं ज्ञान न थाय, पण जीव अने अजीव भिन्न छे एम समजीने
अभेद चैतन्यमूर्ति शुद्ध आत्मा तरफ वळतां स्वपरप्रकाशक ज्ञान खीले छे, ते ज्ञान अजीवादिने पण जाणे छे.
ज्ञान तो आत्मानुं छे, ज्ञान कांई नवतत्त्वना विकल्पनुं नथी, विकल्पथी तो ज्ञान जुदुं छे. ज्ञान तो आत्मानुं
होवा छतां ते ज्ञान जो आत्मा तरफ वळीने आत्मा साथे एकता न करे ने राग साथे एकता करे तो ते ज्ञान
स्व–परने यथार्थ जाणी शकतुं नथी एटले के ते मिथ्याज्ञान छे, अधर्म छे. रागना आश्रय विना ज्ञायकनो
अनुभव करवो तेने आत्मख्याति कहे छे, ने ते सम्यग्दर्शन छे, त्यांथी धर्मनी शरूआत थाय छे. अहीं द्रष्टिमां
परिपूर्ण आत्मानो स्वीकार थयो छे, छतां त्यारपछी हजी वीतरागता करवानुं काम बाकी रही जाय छे.
चोथा गुणस्थाने सम्यक् आत्मभान थतां द्रष्टिमां पूरुं स्वरूप आवी गयुं एटले श्रद्धाथी तो कृतकृत्यता
थई गई, पण हजी आत्मानो केवळज्ञानपणे विकास थयो नथी, वीतरागता पण थई नथी. हुं त्रिकाळ चैतन्य
स्वरूप जीवद्रव्य छुं, अजीवतत्त्व माराथी भिन्न छे ने बीजा सात तत्त्वो छे ते क्षणिक छे,–एम नवतत्त्वना भेदनो
विकल्प धर्मीने पण आवे छे, पण ते धर्मीने ते विकल्पमां एकताबुद्धि नथी एटले विकल्पनी मुख्यता नथी पण
अभेद चैतन्यनी ज मुख्यता छे. अने आत्मामां एकाग्र थईने वीतराग थतां तेवा विकल्पो थता ज नथी.
जुओ! आ आत्मकल्याण माटेनी अपूर्व वात छे. ‘आ वात कोई बीजाने माटे नथी पण मारे माटे ज