Atmadharma magazine - Ank 091
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १५० : : आत्मधर्म : ९१
छे’–एम सवळो थईने पोते पोताना उपर न ल्ये तो ते जीवने समजवानी दरकार नथी अने तेने आत्मानी
आ वात अंतरमां समजाशे नहि. माटे आत्मार्थी जीवोए अंतरमां पोताना आत्मा साथे आ वात मेळववी
जोईए.
अहो, आ सूत्रमां भगवान कहे छे के ‘भूयत्थेण अभिगदा....’ नवतत्त्वोने भूतार्थथी जाणवा ते
सम्यग्दर्शन छे. खरेखर भूतार्थनयना विषयमां नवतत्त्वो छे ज नहि, नवतत्त्वो तो अभूतार्थनयनो विषय छे,
भूतार्थनयनो विषय तो एकलो ज्ञायक आत्मा ज छे. जे एक शुद्ध ज्ञायक तरफ वळ्‌यो तेने नवतत्त्वनुं ज्ञान
यथार्थ थई गयुं. एक चैतन्यतत्त्वने भूतार्थथी जाणवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे,–आ सम्यग्दर्शननो नियम कह्यो.
नवतत्त्वना विकल्प ते नियमथी सम्यग्दर्शन नथी.
हवे, जे नवतत्त्वो कह्या तेमां पर्यायरूप सात तत्त्वो रूपे एक जीव अने बीजो अजीव–ए बंनेनुं स्वतंत्र
परिणमन बतावे छे. जीव अने अजीव तो त्रिकाळी तत्त्व छे, तेनी अवस्थामां जीवनी योग्यता अने अजीवनुं
निमित्तपणुं एवा निमित्त–नैमित्तिक संबंधथी पुण्य–पाप वगेरे सात तत्त्वो थाय छे. त्यां, विकारी थवा योग्य
अने विकार करनार ए बंने पुण्य छे तेम ज ए बंने पाप छे. तेमां एक जीव छे ने बीजुं अजीव छे–एटले के
विकारी थवाने योग्य जीव छे ने विकार करनार अजीव छे. जीवना विकारमां अजीव निमित्त छे तेथी अहीं
अजीवने विकार करनार कह्युं छे एम समजवुं. जीव पोते ज विकारी थवा योग्य छे, कोई बीजो तेने विकार करावे
छे एम नथी. जीव सर्वथा कूटस्थ के सर्वथा शुद्ध नथी पण पुण्य–पापरूप विकारी थवानी योग्यता तेनी
अवस्थामां छे. अने ते योग्यतामां अजीव निमित्त छे. अजीवने विकार करनार कह्युं एनो अर्थ ते निमित्त छे
एम समजवुं. जीवनी लायकात छे ने अजीव निमित्त छे. जीवमां पोतानी लायकातथी ज विकार थाय छे त्यारे
निमित्त तरीके अजीवने विकार करनार कहेवाय छे. पण जीवमां जो विकारनी योग्यता न होय तो अजीव कांई
तेने विकार करावतुं नथी.
जीवनी योग्यताथी विकार थाय छे ते जीवपुण्य–पाप छे, ने तेमां निमित्त अजीव छे ते अजीवपुण्य–पाप
छे, ए रीते जीव अने अजीव बंनेनुं स्वतंत्र परिणमन छे. ए प्रमाणे साते तत्वोमां एक जीव ने बीजुं अजीव–
एम बब्बे प्रकार लेशे. जीव अने अजीव ए बे तो स्वतंत्र त्रिकाळी तत्त्वो छे, ने ए बंनेनी अवस्थामां
साततत्त्वरूप परिणमन कई रीते छे ते ओळखावे छे. आ बधुं हजी तो नवतत्वनी व्यवहारश्रद्धामां आवे छे.
पुण्य अने पाप ए बंने विकार छे; विकारी थवानो जीवनो त्रिकाळी स्वभाव नथी पण अवस्थानी योग्यता छे,
ने तेमां अजीव निमित्त छे. जीवमां पुण्य–पाप थाय छे ते जो अजीवना निमित्त वगर ज थता होय तो ते
जीवनो स्वभाव ज थई जाय, ने कदी टळे नहि. तेम ज जो निमित्तने लीधे ते विकार थतो होय तो जीवनी
वर्तमान अवस्थानी योग्यता स्वतंत्र न रहे ने जीव ते विकारने टाळी न शके. माटे अहीं उपादान–निमित्त बंने
साथे ओळखावे छे.
जेम ओछा–वधता पाणीना संयोगरूप निमित्त वगर एकला लोटमां ‘आ रोटलीनो लोट, आ पुरीनो
लोट के आ भाखरीनो लोट’–एवो भेद नथी पडता; त्यां लोटनी तेवी योग्यता छे ने तेमां पाणीनुं निमित्त पण
छे. तेम चैतन्य भगवान आनंदमूर्ति एकरूप छे, तेमां परसंयोग (कर्म) ना निमित्त वगर एकला पोताथी ज
पुण्य–पाप वगेरे सात भेद न पडे. ते सात तत्त्वनी योग्यता तो जीवमां पोतामां ज छे, परंतु तेमां अजीवनुं
निमित्त पण छे. अजीवनी अपेक्षा वगर एकला जीवतत्त्वमां सात प्रकार पडे नहि. जीवे पोतानी योग्यताथी
पुण्यपरिणाम कर्या ते जीवपुण्य छे ने तेमां जे कर्म निमित्त छे ते अजीवपुण्य छे. बंनेमां पोतपोतानी स्वतंत्र
लायकात छे. अजीवमां जे पुण्य थया ते जीवने लीधे थया एम नथी, अने जीवमां जे पुण्यभाव थया ते
अजीवने लीधे थया एम पण नथी. वर्तमान एक समयमां बंने साथे छे, तेमां जीवनी योग्यता ने अजीव
निमित्त–एवो निमित्त–नैमित्तिक संबंध छे.
माननार जीव ईश्वरने कर्ता न माने, वस्तुने सर्वथा कूटस्थ के सर्वथा क्षणिक न माने. नवतत्त्वने माने तो जीवनुं
परिणमन पण माने एटले जीवने कूटस्थ मानी