Atmadharma magazine - Ank 091
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४७७ : १५१ :
शके नहि तेम ज अजीवने पण कूटस्थ न मानी शके. जगतमां भिन्न भिन्न अनेक जीव–अजीव द्रव्यो माने, एक
द्रव्यमां अनेक गुणो माने, तेनुं परिणमन माने, अने तेमां विकार माने तो ज नवतत्त्वोने मानी शके.
नवतत्त्वने जे माने ते, जगतमां एक कूटस्थ सर्वव्यापी ब्रह्म ज छे–एम न मानी शके. सम्यग्दर्शन प्रगट
करवानी तैयारीवाळा जीवने प्रथम नवतत्त्वनी श्रद्धारूप आंगणुं आवे छे.
अहीं श्री आचार्यदेवे साते तत्त्वोमां जीवनी योग्यतानी वात करी छे. जीवनी वर्तमान पर्यायनी
योग्यताथी ज पुण्य थाय छे. एटले ‘आ वखते आवो ज शुभभाव केम?’ एवो प्रश्न रहेतो नथी. पुण्यना
असंख्य प्रकारो छे, तेमां भगवानना दर्शन वखते अमुक प्रकारनो शुभराग थाय, शास्त्रश्रवण वखते अमुक
जातनो शुभराग होय ने दया, दान वगेरेमां अमुक प्रकारनो शुभराग होय–एम केम? शुं निमित्तने लीधे तेवा
प्रकार पडे छे?–तो कहे छे के ना, ते ते वखतनी जीवनी विकारी थवानी योग्यता ज तेवा प्रकारनी छे. आटलुं
कबूले तेणे तो हजी पर्यायद्रष्टिथी–व्यवहारथी–अभूतार्थनयथी जीवने तथा पुण्यादि तत्त्वने कबूल्यां कहेवाय.
परमार्थमां तो ए नवतत्त्वना विकल्प पण नथी.
मिथ्यात्व तेम ज हिंसादि भावो ते पाप तत्त्व छे. तेमां पण पापरूपे थवा योग्य अने पाप करनार–ए
बंने जीव अने अजीव छे, अर्थात् पापभाव थाय तेमां जीवनी योग्यता छे ने अजीव निमित्त छे. पुण्य अने
पाप बंने विकार छे; तेथी ‘विकारी थवानी योग्यता’मां ज पुण्य अने पाप बंनेने लई लीधा छे. निमित्त विना
ते थता नथी ने निमित्तने लईने पण थतां नथी. जीवनी योग्यताथी थाय छे ने अजीव निमित्त छे. ‘योग्यता’
कहेतां तेमां ए बधा न्याय आवी जाय छे.
सम्यग्द्रष्टि जीव विकारने पोतानुं स्वरूप मानता नथी छतां तेने विकार थाय छे. त्यां, चारित्रमोहनीय
कर्मना उदयने लीधे सम्यग्द्रष्टिने विकार थाय छे–एम नथी. पण ते भूमिकामां रहेला जीवना परिणाममां ज
पुण्य के पाप थवानी ते वखतनी लायकात छे. तेमां अजीवकर्म तो निमित्त छे. मिथ्यात्वना पापमां
मिथ्यात्वकर्मनो उदय निमित्त छे. पण जे जीवने मिथ्यात्वनुं पाप थयुं त्यां ते जीवनी पर्यायमां ज तेवी लायकात
छे, मिथ्यात्वकर्मने लीधे मिथ्यात्व थयुं नथी. छतां मिथ्यात्वादि भावमां अजीवकर्म निमित्त न होय एम पण
बनतुं नथी; एकला तत्त्वमां परनी अपेक्षा वगर विकार थाय नहीं. जो एकला तत्त्वमां परलक्ष वगर विकार
थाय तो तो ते स्वभाव ज थई जाय.
अहीं जीवने पोतानी योग्यतामां रागादि वधे छे ने घटे छे एटले पुण्य–पाप वगेरेनी हीनाधिकता थाय
छे, तो तेना निमित्त तरीके सामे अजीवमां पण हीनाधिकता मानवी पडशे. ते हीनाधिकता अनेक द्रव्य वगर
होई शके नहि, एटले पुद्गलमां संयोग–वियोग स्कंध वगेरे मानवुं पडशे. जेम अहीं जीवना उपादाननी
योग्यतामां अनेक प्रकार पडे छे तेम सामे निमित्तरूप अजीवकर्ममां पण अनेक प्रकारो पडे छे. आम छतां कोई
द्रव्य कोई द्रव्यनुं वेरी तो छे नहि. अजीवकर्मो वेरी थईने जीवने बळजबरीथी विकार करावे छे–एम नथी.
अजीवने विकारनो करनार कह्यो ते तो निमित्त तरीके छे.
आ गाथा घणी सरस छे; आमां नवतत्त्व समजीने भूतार्थस्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगट करवानी
अद्भुत वात आचार्यभगवाने करी छे. आ गाथा समजीने अंतरमां मनन करवा जेवी छे.
–‘भावे भवनो अभाव’–
(दीक्षाकल्याणकना प्रवचनमांथी)
परनी भावना करवामां तो भाई! तारो अनंत काळ चाल्यो गयो, हवे आवा चैतन्यनो महिमा जाणीने
तेनी भावना तो कर. एनी भावनाथी तारा भवना नीवेडा आवशे. श्री शांतिनाथ भगवान आवी भावना करीने
मुनि थया; तेम पोते पोतानी शक्ति प्रमाणे भावना करवी. आवी भावनामां साथ आपवा जेवो छे–आवी
भावनानुं अनुसरण करवा जेवुं छे. अहो! आवी भावना भावीने जंगलमां जईने ध्यान करीए ने एवा लीन
थईए के स्थिर बिंब देखीने शरीर साथे जंगलना रोझडां ने हरणां भ्रमथी पोताना शींगडा घसता होय.–आवी
स्थितिमां क्यारे होईए? ‘अमे तो आनंदकंद छीए’ एवा भानपूर्वक स्वभावनी भावना भावीने, राग तोडीने
शांतिनाथ भगवान वीतरागी मुनि थया, सुख–दुःखमां समभावी थया. सर्व प्रकारना उपसर्गमां समतानी भावना
करीने–तेनी उपेक्षा करतां–चैतन्यमां लीनताथी आवी मुनिदशा थई. वन–जंगलमां एकाकी विचरता भगवानने
बहारना संयोगनुं कांई दुःख न हतुं. तेओ तो आत्मानी लीनतामां अतीन्द्रिय आनंदनी मोज करता हता.