अनुभवमां भगवान आत्मानी प्रसिद्धि थाय छे, ते सम्यग्दर्शन छे. आ सिवाय देव–गुरु वगेरे
निमित्तथी तो सम्यग्दर्शन थतुं नथी, दया–पूजाना भावरूप पुण्यथी पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी ने
नवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धाथी पण सम्यग्दर्शन थतुं नथी. नवतत्त्वने बराबर माने ते पण हजी तो पुण्य
चोथा गुणस्थानथी ज थाय छे, ने त्यांथी ज अपूर्व आत्मधर्मनी शरूआत थाय छे. आवा
निश्चयसम्यग्दर्शन वगर चोथुं गुणस्थान के धर्मनी शरूआत थती नथी.
शी रीते?
विकल्प–रहित थईने एक अभेद आत्मानी श्रद्धा करवानी वात छे. भूतार्थनयना आलंबनथी शुद्ध
आत्माने लक्षमां लीधा सिवाय व्यवहारनयना आलंबनमां चैतन्यनुं एकपणुं प्रगट करवानी ताकात
नथी.
ज्ञाननी स्वसन्मुख पर्याय छे, पण ते अनुभूतिनी साथे सम्यग्दर्शन नियमथी होय छे तेथी अहीं
अनुभूतिने ज सम्यग्दर्शन कही दीधुं छे.
आत्मानी अनुभूतिनुं लक्षण आत्मख्याति छे–आत्मानी प्रसिद्धि छे. जीव–अजीवना निमित्त–नैमित्तिक
संबंधने लक्षमां लईने जोतां नवतत्त्वो छे खरा, तेमने व्यवहारनय स्थापे छे, पण भूतार्थनय
(शुद्धनय) तो एक अभेद आत्माने ज स्थापे छे, जीव–अजीवना निमित्त–नैमित्तिक संबंधने पण ते
स्वीकारतो नथी. आत्मा त्रिकाळ एकरूप सिद्ध जेवी मूर्ति छे, एवा आत्मानी श्रद्धा करवी ते परमार्थ
सम्यग्दर्शन छे, तेमां भगवान आत्मानी प्रसिद्धि थाय छे.
पण खबर नथी तेने तो व्यवहारश्रद्धा पण नथी, तेनी तो अहीं वात नथी. परन्तु कोई जीव नवतत्त्वने
जाणवामां ज रोकाई जाय पण नवनुं लक्ष छोडी एक आत्मा तरफ न वळे, तो तेने पण सम्यग्दर्शन थतुं
नथी. नवतत्त्वनी श्रद्धा वच्चे आवे छे तेने व्यवहारश्रद्धा क्यारे कहेवाय? के जो नवना विकल्पनो आश्रय
छोडीने, भूतार्थना आश्रये आत्मानी ख्याति करे–आत्मानी प्रसिद्धि करे–आत्मानी अनुभूति करे तो
नवतत्त्वनी श्रद्धाने व्यवहारश्रद्धा कहेवाय. अभेद आत्मानी श्रद्धा करीने परमार्थश्रद्धा प्रगट करे तो