Atmadharma magazine - Ank 091
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १५४ : : आत्मधर्म : ९१
रही,–तो एम न बने. ए ज प्रमाणे कोई कहे के, अमने पर पदार्थोनी रुचिनो नाश तो थई गयो छे पण
स्वपदार्थनी रुचि ऊपजी नथी ने आत्मानुं कायमपणुं भास्युं नथी;–तो तेनी वात खोटी छे. जे क्षणे परमां
सुखबुद्धिनो नाश थयो ते ज क्षणे आत्मानी रुचि न थाय अने आत्मानी धु्रवतानो आधार न भासे–एम बने
नहि. सम्यकत्वनो उत्पाद ने आत्मानी धु्रवता वगर मिथ्यात्वनो व्यय होय नहीं.
पिंडदशाना नाशनुं कारण घडानी उत्पत्ति छे, तेम ज ते घडामां माटीपणुं चालु रहीने पिंडनो व्यय थाय
छे; पिंडनो व्यय थवा छतां माटी धु्रव रहे छे. जो वस्तुमां नवा भावनी उत्पत्ति अने वस्तुनी धु्रवता न मानो तो
जगतमां कारणना अभावने लीधे कोई भावोनो नाश ज न थाय; अथवा तो सत्नो ज सर्वथा नाश थई जाय.
स्वनी रुचिना उत्पाद वगर अने धु्रव आत्माना अवलंबन वगर ज जो कोई मिथ्यारुचिनो व्यय करवा मागे तो
व्यय थई शके ज नहि, अथवा तो मिथ्यारुचिना नाश भेगो आत्मानो य नाश थई जाय. माटे धु्रव अने उत्पाद
ए बंने भावो वगरनो एकलो व्यय होतो नथी. एम बधा भावोमां समजवुं.
सर्वज्ञदेवे जोयेलुं अने कहेलुं वस्तुनुं स्वरूप त्रिकाळ सनातन आ प्रमाणे वर्ती रह्युं छे; तेमां कोई
आघा–पाछानी कल्पना करे तो, वस्तुस्वरूपमां तो कांई आघुं–पाछुं थाय तेम नथी पण तेनी मान्यतामां
मिथ्यात्व थशे.
कोई कहे के, ‘आपणे बीजुं कांई समजवानुं काम नथी, बस! राग–द्वेषने टाळो.’ तो एम कहेनारो
कया भावमां टकीने राग–द्वेष टाळशे? राग–द्वेषनो नाश थतां, वीतरागभावनी उत्पत्ति अने आत्मानी
धु्रवता–ए बंनेने मान्या विना पोताना अस्तित्वने ज नहि मानी शकाय, अने राग–द्वेषनो नाश पण
सिद्ध नहि थाय. जो धु्रवपणुं न माने तो चेतननी धु्रवताना अवलंबन वगर राग–द्वेषनो नाश थाय नहि.
जो धु्रव वगर ज राग–द्वेषनो नाश थवानुं माने तो राग–द्वेषनो नाश थतां आत्मानुं अस्तित्व ज न रह्युं!
अने जो वीतरागतानो उत्पाद न माने तो राग–द्वेषनो नाश ज न थाय, केम के बीजा भावनी उत्पत्ति
वगर पहेलांंना भावनो नाश ज न थाय. रागनो व्यय ते वीतरागतानी उत्पत्तिरूप छे ने तेमां
चैतन्यपणानी धु्रवता छे. धु्रवना लक्षे, वीतरागतानी उत्पत्ति थतां, रागनो व्यय थाय छे. ए रीते उत्पाद–
व्यय ने धु्रव त्रणे एक साथे छे. वीतरागताना उत्पाद वगर रागनो व्यय थई शके नहि अने ए प्रमाणे
जगतमां मिथ्यात्व, अज्ञान, शरीर, घडो वगेरे कोई भावनो व्यय थाय नहि–ए दोष आवे. अने चेतननी
धु्रवता वगर ज राग–द्वेषनो नाश थाय तो ते राग भेगो सत् आत्मानो य नाश थई गयो, एटले धु्रव
वगर व्यय मानतां जगतना बधा भावोनो नाश थई जशे.–ए मोटो दोष आवे छे. माटे वस्तुमां उत्पाद–
व्यय–धु्रव त्रणे एक साथे ज छे–एवुं वस्तुस्वरूप समजवुं जोईए.
घडानी उत्पत्तिरूप व्ययकारणना अभावमां माटीमां पिंडनो व्यय नहि थाय. अने जो पिंडनो व्यय नहि
थाय तो तेनी जेम जगतमां अज्ञान, मिथ्यात्व, राग–द्वेष वगेरे कोई पण भावोनो व्यय नहि थाय.–एवो दोष
आवे छे. अने धु्रवता वगर राग द्वेषनो नाश थवानुं माने तो तेनी श्रद्धामां आत्मानो नाश थई जाय छे. जो के
आत्मानो तो नाश थतो नथी, पण आत्मानी धु्रवताना अवलंबन वगर राग–द्वेषनो नाश करवानुं जे माने छे
तेनी मान्यतामां आत्मानो ज अभाव थई जाय छे, एटले के तेनी मान्यता मिथ्या थाय छे.
कर्म ते पुद्गलनी पर्याय छे. ते पर्यायनो नाश तेनी बीजी पर्यायना उत्पाद वगर थतो नथी. कर्मनो नाश
आत्मा करे एम तो नथी, कर्मो आत्माने नडे छे माटे तेनो नाश करो–एम माननार तो मूढ छे, पण जे धु्रव–
स्वभावना अवलंबन वगर राग–द्वेषनो नाश करवानुं माने ते पण मूढ छे. जड कर्मोनो नाश ते पुद्गलनी
धु्रवताने अने तेनी नवी पर्यायना उत्पादने अवलंबे छे. आत्माना वीतरागभावथी पुद्गलमां कर्मदशानो व्यय
थयो–एम खरेखर नथी. हा, आत्मामां धु्रवना आश्रये वीतरागतानी उत्पत्ति थतां रागनो व्यय थाय छे.
वस्तुनां उत्पाद–व्यय–धु्रवने ते वस्तुनी साथे ज संबंध छे पण एक वस्तुना उत्पाद–व्यय–धु्रवने बीजी वस्तु साथे
कांई संबंध नथी.
आ तो सनातन सत्य वस्तुस्थितिना महानियमो छे. ईश्वरे जीवने बनाव्यो–एम ईश्वरने कर्ता माने
अथवा तो निमित्त आवे तेवी पर्याय थाय–एम बीजी