Atmadharma magazine - Ank 091
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४७७ : १४३ :
तीर्थंकरोना कुळनी टेक
(दीक्षा कल्याणकना प्रवचनमांथी)

अनंता तीर्थंकरो जे रस्ते विचर्या तेनो हुं केडायत् थाउं छुं; अमारा पुरुषार्थमां वच्चे भंग पडे नहि, अमे
अप्रतिहत पुरुषार्थ वाळा छीए.–भगवान शांतिनाथ प्रभु कहे छे के अमे हवे अमारा आत्म–स्वभावमां वळीए
छीए.........निर्विकल्प स्वभावना गाणां गावा अने ते प्रगट करवा अमे तैयार थया छीए....हवे अमारे
स्वरूपमां ठरवानां टाणां आव्या छे. अंतरना आनंदकंद स्वभावनी श्रद्धासहित तेमां रमणता करवा जाग्या ते
भावमां हवे भंग पडवानो नथी....अमारो जागेलो भाव तेने अमे पाछो पडवा देशुं नहि........अखंडानंद
स्वभावनी भावना सिवाय पुण्य–पापनी भावनानो भाव हवे अमने कदी आववानो नथी.–दीक्षा माटे तैयार
थयेला शांतिनाथ भगवान आवी भावना करता हता.
अनादि प्रवाहमां अमारा जेवा अनंत तीर्थंकरो थया, तेमना कुळनी जातनो हुं छुं. क्षत्रिय वगेरे
कुळ छे ते खरेखर आत्मानुं कुळ नथी. तीर्थंकरो आत्माना चैतन्यकुळमां अवतर्या, ते ज तेमनुं साचुं कुळ
छे. अहो, एक चिदानंदी भगवान सिवाय बीजा कोई भावने मनमंदिरमां आणुं नहि, एक चैतन्यदेवने ज
ध्येयरूप बनावीने तेना ध्याननी लीनताथी आनंदकंद स्वभावनी रमणतामां हुं क्यारे पूर्ण थाउं? एकला
चैतन्यस्वभावनो ज आश्रय करीने केवळज्ञान प्रगट करवुं ते अमारा–तीर्थंकरोना कुळनी टेक छे. तीर्थंकरो
ते ज भवे केवळज्ञान लीधे छूटको करे. अनंता तीर्थंकरो आत्मानुं चरित्र पूरुं करीने ते भवे केवळज्ञान अने
मुक्ति पाम्या. अनंता तीर्थंकरो जे पंथे विचर्या ते ज पंथना चालनार अमे छीए. हुं चिदानंद नित्य छुं, ने
संसार बधो अनित्य छे. मारो आनंदकंद चिदानंद स्वभाव ए ज मने शरण छे, जगतमां बीजुं कंई मने
शरण नथी.– आवा प्रकारनी वैराग्यभावना भावीने भगवाने दीक्षा लीधी हती. अहो! तीर्थंकर भगवान
ज्यारे दीक्षा लेता हशे ते काळ केवो हशे? अने ते प्रसंग केवो हशे? जीवने आत्माना सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रनी भावना पण अनंतकाळमां दुर्लभ छे.
‘जिनेश्वरना लघुनंदन’नी
श्रद्धा केवी होय?
हुं शुद्ध चैतन्य कारण परमात्मा छुं, तेमांथी ज मारी पूर्ण निर्मळ कार्यपरमात्मादशा प्रगट
थवानी छे. आवो हुं शुद्ध चिदानंद ज्ञानमूर्ति छुं, आ ज मारी निर्मळदशारूपी कार्यनुं कारण छे; ए
सिवाय कोई शुभ भाव के निमित्तादि पर पदार्थो मारी निर्मळदशानुं कारण नथी. क्षणिक शुभ–अशुभ
भावो थता होवा छतां आवा स्वभावनो निर्णय करवो जोईए; स्वभावना निर्णयनुं जोर विकारने
तोडी नांखे छे. नीचली साधकदशामां भक्ति–प्रभावनादिना भाव होय व्रतादि भाव होय, पण साधक
जीव ते शुभरागने धर्मनुं कारण मानता नथी. साधकनी श्रद्धामां धु्रव चैतन्यस्वभावनुं ज आलंबन छे,
ते क्यारेय खसतुं नथी; श्रद्धामां धु्रव चैतन्यस्वभाव आव्यो छे ते क्यारेय भूलातो नथी. मुनिने छठ्ठे
गुणस्थाने महाव्रत वगेरेना शुभभाव आवे पण ते धर्म नथी, धु्रव चैतन्यस्वभावमां एकाग्रता ते ज
धर्म छे. मुनिओने सहज वस्त्ररहित निर्ग्रंथ निर्दोष दशा होय छे ने अंतरमां निज परम शुद्ध आत्माने
ज श्रद्धा–ज्ञानमां लईने ध्यावे छे. चोथा गुणस्थानवाळा धर्मीने पण कोई समये श्रद्धामांथी परम शुद्ध
आत्मानुं ध्यान टळतुं नथी, श्रद्धा वडे ते सदाय–पर्याये पर्याये परम शुद्ध आत्माने ध्यावे छे. तेथी ते
‘विशुद्ध आत्मा’ थयो छे. आवुं विशुद्धआत्मापणुं चोथा गुणस्थानथी शरू थाय छे; तेने ‘जिनेश्वरनो
लधुनंदन’ कहेवाय छे.
(लाठी : पंचकल्याणक प्रवचनोमांथी)