अनंता तीर्थंकरो जे रस्ते विचर्या तेनो हुं केडायत् थाउं छुं; अमारा पुरुषार्थमां वच्चे भंग पडे नहि, अमे
छीए.........निर्विकल्प स्वभावना गाणां गावा अने ते प्रगट करवा अमे तैयार थया छीए....हवे अमारे
स्वरूपमां ठरवानां टाणां आव्या छे. अंतरना आनंदकंद स्वभावनी श्रद्धासहित तेमां रमणता करवा जाग्या ते
भावमां हवे भंग पडवानो नथी....अमारो जागेलो भाव तेने अमे पाछो पडवा देशुं नहि........अखंडानंद
थयेला शांतिनाथ भगवान आवी भावना करता हता.
छे. अहो, एक चिदानंदी भगवान सिवाय बीजा कोई भावने मनमंदिरमां आणुं नहि, एक चैतन्यदेवने ज
ध्येयरूप बनावीने तेना ध्याननी लीनताथी आनंदकंद स्वभावनी रमणतामां हुं क्यारे पूर्ण थाउं? एकला
चैतन्यस्वभावनो ज आश्रय करीने केवळज्ञान प्रगट करवुं ते अमारा–तीर्थंकरोना कुळनी टेक छे. तीर्थंकरो
ते ज भवे केवळज्ञान लीधे छूटको करे. अनंता तीर्थंकरो आत्मानुं चरित्र पूरुं करीने ते भवे केवळज्ञान अने
मुक्ति पाम्या. अनंता तीर्थंकरो जे पंथे विचर्या ते ज पंथना चालनार अमे छीए. हुं चिदानंद नित्य छुं, ने
शरण नथी.– आवा प्रकारनी वैराग्यभावना भावीने भगवाने दीक्षा लीधी हती. अहो! तीर्थंकर भगवान
ज्यारे दीक्षा लेता हशे ते काळ केवो हशे? अने ते प्रसंग केवो हशे? जीवने आत्माना सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रनी भावना पण अनंतकाळमां दुर्लभ छे.
सिवाय कोई शुभ भाव के निमित्तादि पर पदार्थो मारी निर्मळदशानुं कारण नथी. क्षणिक शुभ–अशुभ
भावो थता होवा छतां आवा स्वभावनो निर्णय करवो जोईए; स्वभावना निर्णयनुं जोर विकारने
जीव ते शुभरागने धर्मनुं कारण मानता नथी. साधकनी श्रद्धामां धु्रव चैतन्यस्वभावनुं ज आलंबन छे,
ते क्यारेय खसतुं नथी; श्रद्धामां धु्रव चैतन्यस्वभाव आव्यो छे ते क्यारेय भूलातो नथी. मुनिने छठ्ठे
गुणस्थाने महाव्रत वगेरेना शुभभाव आवे पण ते धर्म नथी, धु्रव चैतन्यस्वभावमां एकाग्रता ते ज
धर्म छे. मुनिओने सहज वस्त्ररहित निर्ग्रंथ निर्दोष दशा होय छे ने अंतरमां निज परम शुद्ध आत्माने
ज श्रद्धा–ज्ञानमां लईने ध्यावे छे. चोथा गुणस्थानवाळा धर्मीने पण कोई समये श्रद्धामांथी परम शुद्ध
आत्मानुं ध्यान टळतुं नथी, श्रद्धा वडे ते सदाय–पर्याये पर्याये परम शुद्ध आत्माने ध्यावे छे. तेथी ते
‘विशुद्ध आत्मा’ थयो छे. आवुं विशुद्धआत्मापणुं चोथा गुणस्थानथी शरू थाय छे; तेने ‘जिनेश्वरनो
लधुनंदन’ कहेवाय छे.