: वैशाख : २४७७ : १४५ :
प....हे....लां....
“ज्यां जोउं त्यां नजरे पडतां राग ने द्वेष हा! हा!
ज्यां जोउं त्यां श्रवणे पडती पुण्य ने पाप गाथा.
जिज्ञासुने शरणस्थळ क्यां? तत्त्वनी वात क्यां छे?
पूछे कोने पथ पथिक ज्यां आंधळा सौ ज पासे.”
ह....वे....
“ज्यां जोउं त्यां नजरे पडतो शुद्धआत्मा ज आहा!
ज्यां जोउं त्यां श्रवणे पडती शुद्धआत्मानी वार्ता.
जिज्ञासुने शरणस्थळ ह्यां, तत्त्वनी वात ह्यां छे, पूछे
आवी पथ पथिक सौ ज्ञानीओ छे ज पासे.”
* * * * *
* अहो! अहो! श्री सद्गुरु *
‘स्वछंद, मत आग्रह तजी, वर्ते सद्गुरु लक्ष,
समकित तेने भाखियुं, कारण गणी प्रत्यक्ष.’
‘जेने आत्मस्वरूप प्राप्त छे, प्रगट छे ते पुरुष विना बीजो कोई ते आत्मस्वरूप यथार्थ कहेवा योग्य
नथी; अने ते पुरुषथी आत्मा जाण्या विना बीजो कोई कल्याणनो उपाय नथी, ते पुरुषथी आत्मा जाण्या विना
‘आत्मा जाण्यो छे’ एवी कल्पना मुमुक्षु जीवे सर्वथा त्याग करवी घटे छे.’
‘आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदय प्रयोग,
अपूर्ववाणी परमश्रुत, सदगुरु लक्षणयोग्य.’
... परम श्रुत....
‘सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे, अने
ज्ञप्तिमांहि दरव–गुण–पर्याय विलसे; निजालंबी भावे
परिणति स्वरूपे जई भळे, निमित्तो वहेवारो चिदघन
विषे कांई न मळे.’
... अपूर्व वाणी....
‘अहो! वाणी तारी प्रशमरस भावे नीतरती, मुमुक्षुने
पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी; अनादिनी मूर्छा
विषतणी त्वराथी ऊतरती, विभावेथी थंभी स्वरूप
भणी दोडे परिणति.’
जे जीव आत्मार्थी होय ते शुं करे?
‘सेवे सद्गुरु चरणने, त्यागी दई निज पक्ष; पामे ते परमार्थने, निजपदनो ले लक्ष.’
‘प्रत्यक्ष सद्गुरु प्राप्तिनो, गणे परम उपकार; त्रणे योग एकत्वथी वर्ते आज्ञाधार.’
‘अहो! अहो! श्री सद्गुरु, करुणासिंधु अपार; आ पामर पर प्रभु कर्यो, अहो! अहो! उपकार.’
‘शुं प्रभुचरण कने धरूं, आत्माथी सौ हीन; ते तो प्रभुए आपियो, वर्तुं चरणाधीन.’
‘देह छतां जेनी दशा, वर्ते देहातीत; ते ज्ञानीना चरणमां, हो वंदन अगणीत.’
“जे सत्पुरुषोए जन्म, जरा, मरणनो नाश करवावाळो, स्व–स्वरूपमां सहज अवस्थान थवानो
उपदेश कह्यो छे, ते सत्पुरुषोने अत्यंत भक्तिथी नमस्कार छे. तेनी निष्कारण करुणाने नित्य प्रत्ये
निरंतर स्तववामां पण आत्मस्वभाव प्रगटे छे एवा सर्व सत्पुरुषो, तेनां चरणारविंद सदाय हृदयने
विषे स्थापन रहो!”