Atmadharma magazine - Ank 091
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १४६ : : आत्मधर्म : ९१
‘भोगी नहि पण योगी’
धन्य...ए...अवतार!
(दीक्षाकल्याणकना प्रवचनमांथी)
भगवान ज्यारे गृहस्थपणे हजारो राणीओना संगमां हता त्यारे पण तेमां क्यांय सुखबुद्धि न हती एटले
अंतरमां ते बधाथी उदास–उदास हता. राणीओने पण अंदर नक्की थई गयुं हतुं के आ भोगी नथी पण संसारमां
रहेलो योगी छे; अमारा उपरनो राग क्षणमां छोडीने गमे त्यारे चाली नीकळशे. तेनी रुचिनुं जोर स्वभावमां छे,
अमारा शेमां य तेनी रुचि नथी, अमारे लीधे तेने राग थतो नथी, निमित्तने लीधे राग थाय एम ते मानता नथी,
पर्यायनी नबळाईथी राग थाय छे; पण भोगरहित अतीन्द्रिय स्वभावना आनंदनो भोग करवानी वारंवार ते
भावना भावे छे; एटले स्वभावनी सबळाईना जोरे राग तोडीने, आ बधुं छोडीने ते चाल्या जशे.’
भगवान पण अंतरमां भावना करता हता के–
रजकण के रिद्धि वैमानिक देवनी...
सर्वे मान्या पुद्गल एक स्वभाव जो...
हुं असंयोगी चैतन्यमूर्ति छुं, एक परमाणुथी मांडीने छ खंडनी रिद्धि ते बधो य अचेतननो स्वभाव छे. मारा
चैतन्यस्वभावमां ते कोई त्रणकाळ त्रणलोकमां नथी.–आवुं भिन्नपणानुं भान तो हतुं. जेने भिन्नपणानुं भान न
होय तेने तो परथी भिन्न चैतन्यनी भावना पण क्यांथी होय? भगवानने भिन्नतानुं भान होवा छतां रागने लीधे
पर तरफ वलण जतुं हतुं, ते पर तरफनुं वलण खसेडीने चैतन्यमां लीन थवा माटे भगवान भावना करे छे–
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे...
क्यारे थईशुं बाह्यांतर निग्रन्थ जो...
सर्व संबंधनुं बंधन तीक्षण छेदीने...
विचरशुं कव महत्पुरुषने पंथ जो...
कोण आ भावना करे छे?–चक्रवर्ती राजमां रहेला शांतिनाथ भगवान आ भावना करे छे. संसारमां
रह्या पण तेओ सम्यग्द्रष्टि अने मति–श्रुत–अवधि ए त्रण ज्ञानसहित हता. अरीसामां बे प्रतिबिम्ब जोतां
तेमने जातिस्मरण ज्ञान थयुं. पूर्वभवोनुं स्मरण थतां तेओने वैराग्य जागृत थयो, अने तेओ एवी भावना
चिंतववा लाग्या के–अहो, आ पहेलांंना भवमां हुं सर्वार्थ सिद्धिमां अहमिंद्र देव हतो अने तेनी पहेलांंना
भवमां हुं मुनि हतो; त्यारे मारी अनुभवदशा अधूरी रही ने राग बाकी रह्यो तेथी आ अवतार थयो, हवे ते
राग छेदी आ भवे हुं मारी मुक्तदशा प्रगट करवानो छुं; संसारना भोग खातर मारो अवतार नथी पण
आत्माना मोक्ष खातर मारो अवतार छे...हुं भगवान थवा अवतर्यो छुं...आ संसार, शरीर ने भोगोथी
उदासीन थई असंसारी, अशरीरी ने अभोगी एवा अतीन्द्रिय आत्मस्वभावमां लीन थईने, वन–जंगलमां
चैतन्यना आनंदनी मस्तीमां झूलवा मारो अवतार छे. –ए प्रमाणे भगवान संसारथी विरक्त थई आत्माना
आनंदना वळांकमां वळ्‌या. ‘अहो! धन्य ए अवतार...’
सर्वज्ञ क्यां छे अने केवा होय?
अत्यारे आ भरतक्षेत्रमां कोई सर्वज्ञ विचरता नथी, तो आ जगतमां बीजुं कयुं क्षेत्र छे के ज्यां अत्यारे
सर्वज्ञदेव विचरता होय? अत्यारे आ पृथ्वी उपर महाविदेह क्षेत्रमां श्री सीमंधर भगवान वगेरे वीस तीर्थंकरो
अने अनेक केवळी भगवंतो सर्वज्ञपणे विचरी रह्या छे. एटले सर्वज्ञने नक्की करतां महाविदेहादि क्षेत्र पण नक्की
थई जाय छे. ते सर्वज्ञपुरुषना ज्ञान बहार कांई न होय, तेने रागद्वेष होय नहि, ते दुनियाना जीवोनुं कांई करे
नहि; वळी ते सर्वज्ञपुरुष रोटला खाय नहि, स्त्री राखे नहि, शस्त्र के वस्त्र राखे नहि, तेने रोग थाय नहि, ते
पृथ्वी उपर चाले नहि पण आकाशमां विचरे, तेने क्रमिक भाषा न होय पण निरक्षरी दिव्यध्वनि होय, ते कोईने
वंदन करे नहि.–आवा पूर्णज्ञानी आत्माने जाण्या वगर यथार्थपणे पूर्णतानी भावना थाय नहि. धर्मद्वारा जे
पूर्णपद पोताने प्राप्त करवुं छे तेनुं स्वरूप तो जाणवुं जोईए ने? अने ते पूर्णपद प्रगटवानी शक्ति पोताना
स्वभावमां छे, एने जाणे तो धर्मनी शरूआत थाय.