Atmadharma magazine - Ank 092
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 12 of 21

background image
: जेठ: २४७७ आत्मधर्म : १७१:
खरेखर वस्तुस्थिति तेम नथी. ‘नमो अरिहंताणं’ ना अर्थमां पण अज्ञानीओने वांधा ऊठे तेवुं छे. अरिहंत
एटले कर्मरूपी वेरीने हणनार, एटले भगवानना आत्माए जड कर्मोने हण्या–एम अज्ञानी तो खरेखर मानी
लेशे, पण ज्ञानी कहे छे के–ना, खरेखर एम नथी, जडकर्मो आत्माना वेरी छे ने भगवाने कर्मोने हण्या ए कथन
तो निमित्तथी छे. कांई जडकर्मो आत्माना वेरी नथी, तेम ज आत्मा कांई जडकर्मोनो स्वामी नथी के ते
तेने टाळे? जीव अज्ञानभावथी पोते पोतानो वेरी हतो त्यारे निमित्तकर्मोने उपचारथी दुश्मन कह्या, अने जीवे
शुद्धता प्रगट करीने अशुद्धता टाळी त्यां निमित्तरूप कर्मो पण स्वयं टळी गया, तेथी आत्माए कर्मो टाळ्‌यां एम
उपचारथी कहेवाय छे. आम जीव अजीव बंनेनुं जुदापणुं राखीने शास्त्रोना अर्थ समजवा जोईए.
अरिहंत भगवान भाषावर्गणाने ग्रहण करे ने पछी सामा जीवनी योग्यता प्रमाणे ते भाषा छोडे–एम
भगवानने अजीवना कर्ता माने छे ते आज्ञानी छे, तेणे जीवने अजीवनो स्वामी मान्यो छे, वस्तुनी
स्वतंत्रतानी तेने खबर नथी, तेम ज केवळीना स्वरूपनी पण तेने खबर नथी; केवळीने वाणीना कर्ता मानीने
ते केवळीप्रभुनो अवर्णवाद करे छे. वीतरागदेव शुं वस्तुस्वरूप कहे छे ते समज्या विना घणानो मनुष्यदेह
नकामो चाल्यो जाय छे. सात तत्त्वोमां जीव अने अजीवना स्वतंत्र निमित्तनैमित्तिकपणानी श्रद्धा करवी ते तो
व्यवहारश्रद्धामां आवी जाय छे, परमार्थश्रद्धा तो तेथी जुदी छे. जेटला प्रमाणमां जीव शुद्धता करे ने
अशुद्धता टळे तेटला ज प्रमाणमां कर्मो निर्जरी जाय, छतां बंनेनुं परिणमन स्वतंत्र छे. निमित्तनैमित्तिक
संबंधने लईने पर्यायमां तेवो मेळ थई जाय छे.
आठमुं बंधतत्त्व छे. विकारभावमां जीव अटके तेनुं नाम बंधन छे. बंधावायोग्य जीवनी अवस्था छे ने
तेमां निमित्तरूप जडकर्म छे तेने बंधन करनार कहेवाय छे. पण कर्मे जीवने बंधन कराव्युं एम नथी. लायकात
तो जीवनी अवस्थानी छे. आत्मामां बंधननी लायकात थई माटे कर्मने बंधावुं पड्युं–एम पण नथी, ने कर्मने
लीधे जीव बंधायो–एम पण नथी. जेणे स्वभावना एकपणानी श्रद्धा करी तेने पर्यायनी योग्यतानुं यथार्थज्ञान
थाय छे. मात्र नवतत्त्वने जाणे पण अंतरमां स्वभावनी एकता तरफ न वळे तो यथार्थज्ञान थाय नहि ने
सम्यग्दर्शननो लाभ थाय नहि.
जेम माता–पिताने हसतां देखीने कोई बाळक पण भेगो हसवा लागे, पण शा माटे हसे छे तेनी तेने
खबर नथी; तेम ज्ञानी आत्माना सत् स्वभावनी अपूर्व वात करे छे, त्यां ते समजीने, तेनी हा पाडीने जे
उत्साह बतावे छे ते तो आत्मानो अपूर्व लाभ पामे छे. अने केटलाक जीवो ते वात समज्या वगर उत्साह
बतावे छे–ज्ञानी कांईक आत्मानी सारी वात कहे छे एम धारीने हा पाडीने मानी ल्ये छे पण तेनो शुं भाव छे
ते पोते अंतरमां समजतो नथी तो तेने आत्मानी समजणनो यथार्थ लाभ थाय नहि, मात्र पुण्य बंधाईने छूटी
जाय. अंतरमां जाते तत्त्वनो निर्णय करे तेनी ज खरी किंमत छे. जाते तत्त्वनो निर्णय कर्या वगर हा पाडशे
ते टकशे नहि.
प्रश्न:– पर्यायद्रष्टिथी नवतत्त्व जाणवा ते व्यवहार छे, तेनाथी अभेद आत्मानी श्रद्धानो तो कांई लाभ
थतो नथी, तेथी तेमां होंश केम आवे?
उत्तर:– व्यवहारनी होंश करवानुं कोण कहे छे?–पण जेने अभेद आत्माना अनुभवनी होंश छे तेने
वच्चे नवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा आवी जाय छे. अभेदस्वभावना लक्ष तरफ वळतां प्रथम आंगणा तरीके, खोटा
तत्त्वोनी मान्यता छोडीने साचा नवतत्त्वनो निर्णय करवामां होंश आव्या वगर रहे नहि, पण तेमां नवतत्त्वना
विकल्पनी प्रधानता नथी पण अभेद स्वभावनुं लक्ष करवानी प्रधानता छे. नवतत्त्वनो निर्णय पण कुतत्त्वोथी
छोडाववा पूरतो कार्यकारी छे. जो पहेलेथी ज अभेद चैतन्यने लक्षमां लेवानो आशय होय तो वच्चे आवेली
नवतत्त्वनी श्रद्धाने व्यवहारश्रद्धा कहेवाय. पण जेने पहेलेथी ज व्यवहारना आश्रयनी बुद्धि छे ते जीव तो
व्यवहारमूढ छे, तेने नवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा पण साची नथी.
मात्र नवतत्त्वना निर्णयथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी, पण अभेदस्वरूपना अनुभवमां नथी पहोंची शक्यो
त्यां वच्चे अभेदना लक्षे नवतत्त्वनो निर्णय आव्या वगर रहेतो नथी. जेम बारदान वगर माल होतो नथी ने
बारदान पोते पण माल नथी तेम नवतत्त्वने जाण्या वगर सम्यक्श्रद्धा थती नथी ने नवतत्त्वना विचार ते पोते
पण सम्यक्श्रद्धा नथी. विकल्पथी जुदो पडीने अभेद