भगवान आत्मानो अनुभव करीने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ए ज आत्मार्थी जीवनुं पहेलुं कर्तव्य छे. ए सिवाय
जगतना बीजा कोई बाह्य कर्तव्यने आत्मार्थी जीव पोतानुं कर्तव्य मानता ज नथी.)
तरीके रखडावनार कह्यां. मोटा मोटा नामधारी त्यागीओ ने विद्वानो पण आ वातमां गोथां खाय छे. जेम
पाणीना संयोगनुं ज्ञान कराववा माटे पित्तळना कलशने पण ‘पाणीनो कलश’ कहेवाय छे तेम जीव ज्यारे
पोताना ऊंधा भावथी रखडे छे त्यारे निमित्त तरीके जड कर्मो होय छे ते बताववा माटे ‘कर्मे जीवने रखडाव्यो’
एम व्यवहारनुं कथन छे, एने बदले अज्ञानीओ ते कथनने ज वळगी पड्या. कर्मो जीवने रखडावे एवी
मान्यताने अहीं तो व्यवहारश्रद्धामां पण लीधी नथी. जीव अजीवने जुदा जुदा जाणे, जीवनी अवस्थामां
बंधतत्त्वनी योग्यता छे ने पुद्गलमां कर्मरूप थवानी तेनी स्वतंत्र योग्यता छे–एम बंनेने भिन्न भिन्न जाणे तेने
अहीं व्यवहारश्रद्धा कहेवामां आवे छे, ने ते सम्यग्दर्शननो व्यवहार छे.
कांईक कर्युं–एम मानीने संतोष ल्ये, पण अंदर तो मोटुं मिथ्यात्त्व पोषाय छे तेनुं क्यां भान छे? अनंत
संसारपरिभ्रमणनुं कारण मिथ्यात्व छे तेने तो टाळवानी दरकार पण करतो नथी. बाह्यत्याग करीने अनंतवार
जीव नवमी ग्रैवेयके गयो ने चार गतिमां रखडयो. नवमी ग्रैवेयके जनारनी व्यवहारश्रद्धा तो चोख्खी होय छे;
अत्यारना घणा लोकोमां तो तेवी नवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धानुं पण ठेकाणुं नथी. तो पछी, धर्मनो मार्ग तो
अंतरनी परमार्थश्रद्धामां छे तेनी तो वात ज शुं? अत्यारे आ वात बीजे क्यांय चालती जोवामां आवती नथी.
त्यारे परमार्थसम्यग्दर्शन थाय छे, ते ज धर्म छे, ते ज आत्मार्थी जीवनुं पहेलुं कर्तव्य छे.