Atmadharma magazine - Ank 092
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १७२ : आत्मधर्म २४७७: जेठ:
आत्मानो अनुभव करवो ते ज सम्यक्श्रद्धानुं लक्षण छे.–आवो सम्यग्दर्शननो निश्चय–व्यवहार छे. (चैतन्यमूर्ति
भगवान आत्मानो अनुभव करीने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ए ज आत्मार्थी जीवनुं पहेलुं कर्तव्य छे. ए सिवाय
जगतना बीजा कोई बाह्य कर्तव्यने आत्मार्थी जीव पोतानुं कर्तव्य मानता ज नथी.)
अहो! जीवनो स्वभाव ज्ञायक शुद्धचैतन्य छे, तेमां तो बंधन के अपूर्णता नथी. ए ज्ञायकस्वभावनी
द्रष्टिथी तो जीवमां बंध–मोक्ष वगेरे सात तत्त्वो नथी. पण वर्तमान अवस्थामां विकारथी भावबंधनी लायकात
छे. कर्मोए जीवने रखडाव्यो नथी. कर्म तो निमित्तमात्र छे. जीव पोताना विकारथी रखडयो त्यारे कर्मोने निमित्त
तरीके रखडावनार कह्यां. मोटा मोटा नामधारी त्यागीओ ने विद्वानो पण आ वातमां गोथां खाय छे. जेम
पाणीना संयोगनुं ज्ञान कराववा माटे पित्तळना कलशने पण ‘पाणीनो कलश’ कहेवाय छे तेम जीव ज्यारे
पोताना ऊंधा भावथी रखडे छे त्यारे निमित्त तरीके जड कर्मो होय छे ते बताववा माटे ‘कर्मे जीवने रखडाव्यो’
एम व्यवहारनुं कथन छे, एने बदले अज्ञानीओ ते कथनने ज वळगी पड्या. कर्मो जीवने रखडावे एवी
मान्यताने अहीं तो व्यवहारश्रद्धामां पण लीधी नथी. जीव अजीवने जुदा जुदा जाणे, जीवनी अवस्थामां
बंधतत्त्वनी योग्यता छे ने पुद्गलमां कर्मरूप थवानी तेनी स्वतंत्र योग्यता छे–एम बंनेने भिन्न भिन्न जाणे तेने
अहीं व्यवहारश्रद्धा कहेवामां आवे छे, ने ते सम्यग्दर्शननो व्यवहार छे.
हजी लोकोने सम्यग्दर्शनना व्यवहारनुं पण ठेकाणुं नथी त्यां तो चारित्रना व्यवहारमां उतरी पडे
छे. अनादिनी बाह्यद्रष्टि छे तेथी झट बाह्यत्यागमां उतरी पडे छे. बहारथी कांईक त्याग देखाय एटले अमे
कांईक कर्युं–एम मानीने संतोष ल्ये, पण अंदर तो मोटुं मिथ्यात्त्व पोषाय छे तेनुं क्यां भान छे? अनंत
संसारपरिभ्रमणनुं कारण मिथ्यात्व छे तेने तो टाळवानी दरकार पण करतो नथी. बाह्यत्याग करीने अनंतवार
जीव नवमी ग्रैवेयके गयो ने चार गतिमां रखडयो. नवमी ग्रैवेयके जनारनी व्यवहारश्रद्धा तो चोख्खी होय छे;
अत्यारना घणा लोकोमां तो तेवी नवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धानुं पण ठेकाणुं नथी. तो पछी, धर्मनो मार्ग तो
अंतरनी परमार्थश्रद्धामां छे तेनी तो वात ज शुं? अत्यारे आ वात बीजे क्यांय चालती जोवामां आवती नथी.
जीव अने अजीवनी समय समयनी स्वतंत्रता कबूल करीने सात तत्त्वोने जाणे तेने तो
व्यवहारसम्यग्दर्शन थयुं; अने विकल्प रहित थईने अंतरमां अभेद चैतन्यतत्वनो अनुभव अने प्रतीत करे
त्यारे परमार्थसम्यग्दर्शन थाय छे, ते ज धर्म छे, ते ज आत्मार्थी जीवनुं पहेलुं कर्तव्य छे.
[अहीं सुधी, नवतत्त्वमांथी जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा अने बंध ए आठ
तत्त्वोनुं विवेचन थयुं छे, नवमा मोक्षतत्त्वनुं विवेचन बाकी छे, ते हवेना व्याख्यानमां आवशे.]
शुद्धिपत्रक : आत्मधर्म अंक ९१
पृष्ठ–कोलम–लाईन अशुद्ध शुद्ध
१४४–१–११ पुनति शरणमां पुनित शरणमां
१५५–१–२६ बे गोल वगर बे बोल वगर
१५५–२–२१ ज्ञेयोनो स्वभावने ज्ञेयोना स्वभावने
१५७–श्लोक सम्यग्यानविलोचनैः सम्यग्ज्ञानविलोचनैः
१५८–१–२३ रस्तो स्वभाव ज छे. रस्तो साम्यभाव ज छे.
१५८–२–४ ज्ञातापणानो प्रतीत ज्ञातापणानी प्रतीत