Atmadharma magazine - Ank 092
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ: २४७७ आत्मधर्म : १७३ :
शुद्धात्मानुं ध्यान ते ज धर्म;
अने ते माटेनी पात्रतानुं वर्णन
[वीर सं. २४७५ना वैशाख वद १३ना रोज लाठीमां
श्री प्रवचनसार गा. १९४ उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन]
[१] कल्यणन उपय
जे जीवने पोतानुं कल्याण करवुं छे तेणे कल्याण कई रीते थाय ते जाणवुं जोईए. आत्मा सिवाय बीजी
वस्तुना आश्रये कल्याण थाय नहीं. पर चीजोथी आत्माने भिन्न जाणे तो परनी एकाग्रता छोडीने आत्मामां
एकाग्रता करे, ते कल्याण नो उपाय छे.
[२] आत्मामां एकाग्रता कोने थाय?
आत्मा सिवाय बीजी चीजो छे तेने जो न माने तो ते परनी रुचि छोडीने शुद्ध आत्मानी रुचि करवानो
अवकाश रहेतो नथी. आत्मा सिवाय शरीर, मन, वाणी वगेरे पदार्थो जगतमां बिलकुल नथी–एम कोई कहे तो
ते वात मिथ्या छे. पर वस्तुओ जेम छे तेम तेने ज्ञानमां जाणवी जोईए. ज्ञाननो स्वभाव स्व–परप्रकाशक छे
तेथी ते परने पण जाणे छे. अहीं, एक तरफ शुद्ध आत्मा अने बीजी तरफ बधा परद्रव्यो–एम बे विभाग
पाडीने श्री आचार्यदेव कहे छे के आ आत्माने शुद्धआत्मा ज उपलब्ध करवा योग्य छे. शुद्ध आत्मा सिवाय पर
वस्तुओ आत्माने अशुद्धतानुं कारण छे. पर वस्तुना लक्षे अटकतां आत्माने अशुद्धतानी उत्पत्ति थाय छे तेथी
अहीं १९३ मी गाथामां आचार्यदेवे परवस्तुने अशुद्धतानुं कारण कही दीधुं छे. ‘शुद्ध आत्मा ध्रुव होवाथी ते ज
प्राप्त करवा योग्य छे, ए सिवाय परवस्तुओ आत्माने अशुद्धतानुं कारण छे’–एम जेणे नक्की न कर्युं होय तेने
ध्रुव शुद्ध आत्मानी श्रद्धा ने एकाग्रता थती नथी. तेम ज ‘परवस्तुओ आत्मामां अशुद्धताने नीपजावती नथी
पण आत्मा परना लक्षे रोकाय तो पर वस्तुने अशुद्धतानुं कारण उपचारथी कहेवामां आवे छे’–एम न जाणे तो
पण शुद्ध आत्मानी श्रद्धा थती नथी, अने शुद्ध आत्मानी श्रद्धा वगर तेमां एकाग्रता रूप ध्यान पण होय नहीं.
[३] मोहग्रन्थि छेदवानो उपाय
परथी भिन्न पोताना शुद्ध आत्माने धर्मी जीव केवो जाणे छे तेनुं वर्णन १९२ तथा १९३ मी गाथामां
कर्युं; हवे तेनी साथे १९४ मी गाथानी संधि करे छे: ‘हुं परनो नथी, पर मारां नथी, हुं एक ज्ञान छुं.... हुं
आत्माने ए रीते ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय महा पदार्थ, ध्रुव, अचल, निरावलंब अने शुद्ध मानुं
छुं....शरीरो, धन सुख–दुःख शत्रु–मित्रजनो–ए कांई जीवने ध्रुव नथी, ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा छे. तेथी ते
शुद्ध आत्मा ज उपलब्ध करवा योग्य छे.’–ए रीते पूर्वे कह्युं, ते प्रमाणे जाणीने जे पोताना शुद्धात्माने ध्यावे छे
तेने मोहग्रंथि क्षय थई जाय छे–एम १९४ मी गाथामां कहे छे–
जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा।
सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंट्ठिं।।
१९४।।
–आ जाणी, शुद्धात्मा बनी, ध्यावे परम निज आत्मने, साकार अण–आकार हो, ते मोहग्रंथि क्षय करे. १९४
जे आम जाणीने विशुद्धात्मा थयो थको परम आत्माने ध्यावे छे, ते–साकार हो के अनाकार हो–
मोहदुर्ग्रंथिने क्षय करे छे.
ज्ञायकस्वभावी आत्मा ध्रुव छे, ए सिवाय आत्माने कोई परवस्तुओनो संयोग ध्रुव नथी. आत्माथी
समस्त परवस्तुओ जुदी छे ने मलिनताथी पण पर चीज जुदी छे; अज्ञानी जीव परथी मने लाभ–नुकसान
थाय एवो