Atmadharma magazine - Ank 092
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 15 of 21

background image
: १७४ : आत्मधर्म २४७७: जेठ:
मिथ्याभाव करे छे ते मिथ्याभावथी पण पर वस्तुओ जुदी ज छे; तेथी आत्माने कोई परवस्तु उपादेय नथी
पण पोतानो ध्रुव आत्मा ज उपादेय छे.–एम जे जाणे तेने ज आत्मानुं ध्यान थाय छे. आ जाण्या वगर
आत्मानुं ध्यान थतुं नथी. परथी भिन्न पोतानो आत्मा ज उपादेय छे एम नक्की करीने जे जीव परम शुद्ध
आत्माने ध्यानमां ध्यावे छे तेने मोहनो नाश थाय छे ने सम्यकत्व प्रगट थाय छे.
जे जीव विकारने पोतानुं स्वरूप माने तेने विकार रहित परम शुद्ध आत्मानुं ध्यान होतुं नथी. पहेलांं,
परथी मने लाभ–नुकसान थाय अने पुण्य–पाप मारुं कर्तव्य छे–एम जे श्रद्धाए मान्युं हतुं ते श्रद्धामां शुद्ध
आत्मानी उपलब्धि न हती; हवे, उपयोगात्मक ध्रुव आत्मा ज हुं छुं–एम ओळखाण वडे ते मिथ्याश्रद्धा छोडीने
शुद्ध आत्मानी जेणे अंतरमां प्राप्ति करी छे तेने ज आत्मध्यान होय छे ने तेने ज मोहनो क्षय थाय छे.
[४] परमां एकाग्रताथी आत्मा पीडाय छे
आत्मानो स्वभाव ज्ञाताद्रष्टा छे. ते परलक्षे अटकतां तेनी अखंडता पीलाय छे एटले के परलक्षे
अटकतां ज्ञानस्वभावनी एकतामां भंग पडीने विकारनी उत्पत्ति थाय छे. जेम तल जो छूटा रहे तो अखंड रहे
छे, ने घाणीमां जतां ते अखंड रहेता नथी पण पीलाय छे, तेम ज्ञाताशक्तिनो पिंड आत्मा, जो पोताना
ध्रुवस्वभावना आश्रये एकलो रहे तो तेना ज्ञान–दर्शन–आनंद वगेरे अखंड रहे छे, ने परलक्षे रोकातां तेनी
अखंडता भेदाय छे एटले के त्यां विकारनी उत्पत्ति थईने ज्ञातास्वभाव तेमां पीडाय छे.
अहीं श्री आचार्यदेवे शुद्धात्माने जाणीने तेना ध्याननी वात लीधी छे. ध्यानना चार प्रकार छे; तेमां
आर्त्तध्यान अने रौद्रध्यान अधर्मरूप छे, ने धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान धर्मरूप छे. परमां के विकारमां पोतापणुं
मानीने त्यां उपयोगनी एकाग्रता करतां आत्माना चैतन्यप्राण पीडाय छे, तेथी ते आर्त्तध्यान अने रौद्रध्यान छे.
मारो आत्मा शुद्ध, उपयोगस्वरूप छे ते ज मारे ध्रुव छे–एम शुद्धात्माने लक्षमां लईने त्यां एकाग्र थवुं ते
धर्मध्यान अने शुक्लध्यान छे, तेमां चैतन्यप्राण अखंड रहे छे.
[५] शुद्धात्मानुं ध्यान ते धर्म, परनुं ध्यान ते अधर्म
आत्मानो धर्म तेम ज अधर्म–ए बंने ध्यानस्वरूप छे. धर्ममां आत्मस्वभावमां एकाग्रतारूप स्वभावनुं
ध्यान छे, ने अधर्ममां परमां एकाग्रतारूप परनुं ध्यान छे. पर लक्षे भले दयादिना शुभपरिणाममां एकाग्र थाय
तो पण परमार्थे ते अधर्मध्यान ज छे. धर्मध्यानमां तो आत्माना शुद्ध ध्रुवस्वभावनो ज आश्रय छे. आत्माना
ध्रुवस्वभावना ज आश्रये कल्याण छे, परना आश्रये कल्याण नथी–एम नक्की करीने जे जीव पोताना शुद्ध
आत्माने ध्यानमां ध्यावे छे ते जीवने मोहनो क्षय थाय छे. परना लक्षे एकाग्रताथी तो आत्माने भूंडा ध्याननी
ज उत्पत्ति थाय छे ने तेनुं फळ संसार छे. धर्मध्यानना बे प्रकारोमां धर्मध्यान ते मंद छे ने शुक्लध्यान ते उग्र छे;
ते बंने भला–ध्यान छे ने तेमनामां ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आवी जाय छे. तथा अधर्मध्यानना बे
प्रकारोमां आर्त्तध्यान ते मंद छे ते रौद्रध्यान ते तीव्र छे; ए बंने भूंडा ध्यान छे ने संसारनुं कारण छे. आत्माना
शुद्धस्वभावने चूकीने, क्षणिक विभावने के संयोगने पोतानुं स्वरूप मानीने तेना आश्रये जे अटके तेने मोहनो
क्षय थतो नथी पण मोहनी उत्पत्ति ज थाय छे. पहेलांं पर तरफना वलणवाळा शुभाशुभभाव थता होवा छतां
धर्मी जीवने तेना आश्रयनी बुद्धि नथी; तेना निर्णयना ध्येयमां तो शुद्ध ध्रुव आत्मानो ज आश्रय छे एटले तेने
वारंवार शुद्धआत्मामां एकाग्रतानुं रटण रह्या करे छे. विकार भावो थवा होवा छतां तेनाथी भिन्न शुद्धआत्मानो
जेणे निर्णय कर्यो तेने ते शुद्धात्मामां एकाग्रताथी मोहनो क्षय थाय छे. माटे पहेलांं देहादिथी अत्यंत भिन्न अने
क्षणिक विकारथी पण भिन्न, त्रिकाळ उपयोगस्वरूपी ध्रुव शुद्धआत्मानो आत्मामां निर्णय करवो जोईए.
पर्यायमां विकार होवा छतां ज्ञाने तेनाथी भिन्न चैतन्यतत्त्वने जाण्युं छे ने श्रद्धाए अखंड शुद्धचैतन्यतत्त्वने
ध्येयमां लीधुं छे,–आवी जेनी दशा छे ते जीवने शुद्ध आत्मामां प्रवृत्तिद्वारा शुद्धात्मपणुं होय छे तेम ज तेने
शुद्धात्मानुं ध्यान होय छे. जेने संयोग अने विकारथी पार शुद्ध चैतन्यतत्वनी प्रतीति नथी ते जीव बाह्य
संयोगमांथी कल्याण लेवा मागे छे ने बाह्यसंयोगना के विकारना आश्रये ते मोहने टाळवा मागे छे;
कोई वाणीमांथी,