आ धर्मनी वात चाले छे. सौथी पहेलो धर्म सम्यग्दर्शन छे. ते सम्यग्दर्शन केम थाय तेनी वात आ
तत्त्वो पर्यायपूरता छे, त्रिकाळ स्वभावनी द्रष्टिमां ते नव प्रकारना भेद नथी. तेथी स्वभावना अनुभवना
आनंद वखते तो नवतत्त्वनुं लक्ष छूटी जाय छे. परंतु प्रथम जे पृथक् पृथक् नवतत्त्वोने न समजे तेने एक
अभेद आत्मानी श्रद्धा अने अनुभव थई शके नहीं.
विना अज्ञानी जीव बाह्य क्रियाकांडना लक्षे रागनी मंदताथी पुण्य बांधे, ने चार गतिमां रखडे, पण आत्मानुं
कल्याण शुं छे ते वात सूझे नहीं, ने तेने धर्म थाय नहीं.
अवस्थामां पुण्य–पापना विकार थवानी लायकात जीवनी पोतानी छे. दया, पूजा वगेरे भाव ते शुभराग छे,
पुण्य छे, ते विकाररूपे थवानी लायकात जीवनी पोतानी अवस्थामां छे. अने तेना निमित्तरूप अजीव
परमाणुओमां पण पुण्यकर्मरूपे थवानी लायकात स्वतंत्र छे. पुण्यना असंख्य प्रकारो छे, तेमां जीव पोतानी
जेवी योग्यता होय तेवा परिणामे परिणमे छे. पुण्यना असंख्यात प्रकारोमांथी दयाना भाव वखते दयानो भाव
ज होय, बीजो भाव ते वखते न होय, ब्रद्मचर्यना भाव वखते ब्रद्मचर्यनो ज भाव होय, पण ते वखते दाननो
भाव न होय,–एम केम?–कारण के ते ते वखते ते परिणामनी तेवी ज लायकात छे; तेथी ते वखते ते ज
प्रकारनो भाव होय, बीजो भाव न होय पोतानी एक पर्यायने कारणे पण बीजी पर्यायनो भाव थतो नथी, तो
पछी निमित्तथी आत्माना भाव थाय–ए वात तो क्यां रही? पुण्यनी जेम हिंसा, कुटिलता वगेरे पाप परिणाम
थाय तेमां पण ते ते क्षणनी ते जीवनी अवस्थामां तेवी ज लायकात छे. एटले जीव विकारी थवा योग्य छे ने
पुद्गलकर्म तेमां निमित्त छे तेथी तेने विकार करनार कहेवाय छे. जीव अने अजीव बंने पदार्थनी अवस्था
पोतपोतानी स्वतंत्र योग्यताथी ज थाय छे, कोई एकबीजाना कर्ता नथी; पण पुण्य–पाप वगेरे जीवनी विकारी
पर्याय छे तेथी तेमां निमित्तनुं पण ज्ञान करावे छे. एकला जीवतत्त्वमां पोतानी ज अपेक्षाथी सात भेद पडे नहि.
एक तत्त्वमां सात अवस्थाना प्रकार पडतां तेमां निमित्तनी अपेक्षा आवे छे. आत्मानी अवस्थामां पुण्य–पाप
थवामां जीवनी योग्यता छे ने तेमां अजीव निमित्त छे, ते निमित्तने पण पुण्य–पाप कहेवाय छे.