Atmadharma magazine - Ank 094
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४७७ : २०९ :
नथी, पण स्वभावनुं लक्ष छोडीने पर्यायना लक्षे भेदना विकल्पो थाय छे, तेनुं निमित्त अजीव छे, जीवद्रव्य कांई
तेनुं निमित्त नथी.
जुओ, आमां आत्मानी ओळखाण करवानुं कहेवाय छे ते ज धर्मनी रीत छे. जैनधर्मना खरा पर्युषण
आजथी शरू थाय छे. आजथी दसलक्षणधर्मना दिवसो शरू थाय छे, तेमां आजे पहेलो उत्तमक्षमाधर्मनो दिवस
छे. अनादिना सनातन जैनमार्गने विषे आजे धर्मना मंगळ दिवसो शरू थाय छे. पण खरेखर पोताना
आत्मामां धर्मनी शरूआत क्यारे थाय? के जेवो आत्मस्वभाव सर्वज्ञभगवाने कह्यो छे तेवो पोतानो
आत्मस्वभाव ओळखे तो पोतामां धर्मनी शरूआत थाय. आ प्रथम सम्यग्दर्शनधर्मनी वात चाले छे, आत्माना
स्वभावने ओळखवानी वात चाले छे.
आत्मानी समजण करवामां अंतरनी धर्मक्रिया आवे छे. जडनी क्रिया माराथी थाय ने शरीरनी क्रियाथी
धर्म थाय–एम मानवुं ते तो अधर्मनी क्रिया छे, तेने तो नवतत्त्वनी पण खबर नथी. आत्मामां सम्यग्दर्शनादि
निर्मळ भाव प्रगटे ते ज आत्मानी क्रिया छे, ते ज धर्म छे. एवी धर्मक्रियानी आ वात चाले छे. आत्मा तो
ज्ञायक चैतन्यज्योत छे, आनंदकंद निर्विकारीमूर्ति छे, एवो जे ज्ञायकभाव ते ज जीव छे; तेनामां नवतत्त्वना
भेद नथी. पण तेनी अवस्थामां बीजी अजीवचीजना लक्षे सात भंग पडे छे तेनुं निमित्त अजीव छे. आत्मा
ज्ञायक चैतन्य छे ते तो शुद्ध जीव छे, ज्यारे ते ज्ञायक चैतन्यस्वभावनो अनुभव न रहे त्यारे तेनी अवस्थामां
अजीवना निमित्ते सात भंग पडे छे. ने निमित्त–रूप अजीवमां पण सात भंग पडे छे. अहीं जीव अने अजीवने
जुदा राखीने ते बंनेमां सात सात भंग बतावे छे. एक तरफ शुद्ध जीव जुदो राख्यो, सामे अजीव सिद्ध कर्युं;
जीवने स्वभावथी ज्ञायक सिद्ध कर्यो ने अजीवने विकारना हेतु तरीके जणाव्युं. एकला जीवस्वभावना लक्षे
वीतरागभावनी उत्पत्ति थाय छे ने सात तत्त्वना लक्षे तो रागरूप विकल्पनी उत्पत्ति थाय छे.
पण अहीं जीवनो विकार कह्यो केम के अहीं साते तत्त्वो विकल्परूप लीधा छे. पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा,
बंध अने मोक्ष एवा साते तत्त्वोना विकल्प शुद्ध जीवना लक्षे उत्पन्न थता नथी पण निमित्त कर्मना लक्षे उत्पन्न
थाय छे तेथी ते साते तत्त्वोने अहीं विकार कह्या छे. ते सात तत्त्वना लक्षे एकरूप चैतन्यआत्मा द्रष्टिमां के
अनुभवमां आवतो नथी. अने एकाकार ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिमां ने अनुभवमां सात तत्त्वना भंगभेदना
विकल्पो उत्पन्न थता नथी.
जो के संवर, निर्जरा ने मोक्ष तो आत्मानी निर्मळ पर्यायो छे पण अहीं ते तत्त्वसंबंधी विकल्पने ज
संवर, निर्जरा, मोक्षतत्त्व गणीने तेने विकार कह्यो छे. आत्मामां निर्मळ पर्याय प्रगटी होय ते पर्यायना लक्षे
पण रागनी उत्पत्ति थाय छे ने ते रागमां अजीव निमित्त छे. संवर, निर्जरा ने मोक्ष ते आत्मानी निर्मळ पर्याय
छे पण ते त्रण पर्यायनो भेद पाडीने तेनो आश्रय करवा जतां विकारनी ज उत्पत्ति थाय छे, तेना आश्रयमां
चैतन्यनी शांति उत्पन्न थती नथी, माटे ते तत्त्वोने पण विकार कह्यां छे.
जेने शुद्धद्रव्यना आश्रये संवरदशा उत्पन्न थई छे तेनी द्रष्टि ते संवरपर्याय उपर नथी होती, पण
अंतरना अभेदस्वभाव उपर तेनी द्रष्टि होय छे. ते अभेद–स्वभावनी द्रष्टिथी ज संवर–निर्जरा प्रगटे छे, ते
अभेदना आश्रये ज संवर–निर्जरा टके छे ने ते अभेदना आश्रये ज संवर–निर्जरा वधे छे. अभेद स्वभावना
आश्रये ज मोक्षमार्ग छे. संवर–निर्जरारूप पर्यायना लक्षे ते संवर–निर्जरा प्रगटता नथी, टकता नथी ने वधता
नथी, पण ते पर्यायना लक्षे तो रागनी उत्पत्ति थाय छे; माटे एकरूप चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि अने अनुभव
सिवाय सात तत्त्वना विचारो करवा ते विकार छे. पुण्य–पाप वगेरे सात तत्त्वो एकला जीवनी अवस्थामां थाय
छे ने तेना हेतुभूत सात तत्त्वो एकला अजीवनी अवस्थामां थाय छे.–ए प्रमाणे जीव–अजीवनुं स्वतंत्र
परिणमन छे.
आवा जीवादि तत्त्वोनो ख्याल ज्ञानमां न आवे तेने निर्मळ चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि थती नथी. सात
तत्त्वोमां आत्मानी पर्याय ने अजीवनी पर्याय भिन्न भिन्न छे. अखंडस्वभावना अनुभवथी सम्यग्दर्शन
प्रगट्या पछी