Atmadharma magazine - Ank 094
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २१० : : आत्मधर्म : ९४
पण धर्मीने नवतत्त्वना विचार आवे छे, पण ते विकल्प एकत्वबुद्धिपूर्वक आवता नथी एटले परमार्थे तो ते
ज्ञाननुं ज्ञेय थई जाय छे.
श्रेणिकराजा अत्यारे नरकमां छे ने आवती चोवीसीमां पहेला तीर्थंकर थवाना छे; तेमने अनेक राणीओ
अने राजपाटनो संयोग होवा छतां अंतरमां आवा ज्ञायक चैतन्यतत्त्वनुं भान हतुं, अस्थिरताथी राग–द्वेष
थवा छतां ते क्षणे पण चैतन्यज्ञायकमां ज एकतानी द्रष्टि हती तेथी क्षणे क्षणे धर्म थतो हतो. भरत चक्रवर्तीने
छ खंडना राजमां आवुं भान हतुं. तीर्थंकर भगवान माताना पेटमां होय के नाना बाळक होय त्यारे पण तेमने
एवुं ज चैतन्यभान होय छे, सौधर्म–स्वर्गनां ईन्द्र–ईन्द्राणी–शकेन्द्र ने शची ईन्द्राणी–तेमने पण आवुं भान होय
छे, तेओ एकावतारी छे. तीर्थंकर भगवाननी सभामां सिंह, वाघ, सर्प वगेरे तिर्यंचो आवुं भान पामे छे,
नरकमां य कोई कोई जीवो एवुं भान पामे छे, आठ वर्षनुं बाळक पण आवुं भान पामे छे.–ए बधा भेद तो
बाह्य शरीरना छे, अंदर आत्मा तो बधानो सरखो चिदानंदीभगवान छे. तेनुं भान करीने जे जागे तेने एवुं
भान थाय छे.
आवो चैतन्यमूर्ति आत्मस्वभाव समज्या वगर शास्त्रोनुं भणतर ते पण मात्र गधेडा उपर चंदननो
भार भरवा जेवुं छे. जेम गधेडा उपर सुगंधी चंदन भर्युं होय तो तेने तेनी सुगंधनी खबर नथी, तेने तो ते
फक्त बोजारूप छे, तेम जेने आत्मानुं लक्ष नथी ते गमे तेटला शास्त्रो भणे पण तेने शास्त्रनुं ते बधुं भणतर
मात्र मनना बोजारूप छे, अंतरमां चैतन्य–आनंदनी सुगंध तेने आवती नथी,–आत्मानी शांतिनो अनुभव
तेने थतो नथी. तिर्यंच वगेरे जीवोने शास्त्रनुं भणतर न होवा छतां तीर्थंकर भगवान वगेरेनी वाणी सांभळीने
अंतरमां यथार्थ भावोनुं भासन थतां आत्माना आनंदनो अनुभव प्रगट करे छे.
ओळखीने, नवना भेदना विकल्परहित एकला ज्ञायकभावनो अनुभव करवो ते धर्म छे.
अहीं, जीवनी पर्यायमां सात तत्त्वना जे भेद पडे तेमां अजीव निमित्त छे–एम वात लीधी छे, पण
अजीवमां सात भेद पडे तेमां जीव निमित्त छे–ए वात लीधी नथी, केम के अहीं जीवने सात तत्त्वना भेदनुं लक्ष
छोडावीने स्वभवनी एकता कराववी छे, अजीवमां कांई सात भेद छोडावीने एकता कराववानुं प्रयोजन नथी.
जीवना द्रव्य, पर्याय बंनेनी ओळखाण करीने, पर्यायभेदनुं लक्ष छोडी अभेद स्वभावमां वळवुं ते प्रयोजन छे.
अहीं पोते भेदनुं लक्ष छोडी स्वभावमां एकाग्र थतां अजीवनिमित्तनुं लक्ष छूटी जाय छे.
जेम पाणीना एक प्रवाहमां वच्चे सात नाळावाळो पुल आवतां पाणीमां सात भंग पडी जाय छे, तेमां
ते पुल निमित्त छे. तेम चैतन्यमूर्ति आत्मानो ज्ञायकप्रवाह अनादिअनंत एकरूप छे, तेनी क्षणिक अवस्थामां
अजीवना निमित्ते सात प्रकारो पडे छे, ते सात प्रकारोने लक्षमां लेतां एकरूप चैतन्य ज्ञायक आत्मा अनुभवमां
आवतो नथी. बहारनो बुद्धिनो उघाड घणो होय ते आमां काम आवे तेम नथी पण चैतन्यनी रुचिथी ज्ञानने
अंतरमां वाळवानो अभ्यास करवो ते ज अंतरना अनुभवनो उपाय छे.
अहो! हुं आखो ज्ञायक छुं, ज्ञानशक्तिथी पूरो भरेलो छुं; बुद्धिनो उघाड तो ज्ञाननी अल्प अवस्था छे,
अरे! केवळज्ञान पण ज्ञाननी एक अवस्था छे, एवी तो अनंत अवस्थाओनो पिंड मारो एक ज्ञानगुण छे ने
एवा अनंतगुणोना पिंडरूप आखी चैतन्यवस्तु ते हुं छुं. आवा पोताना अभेद आत्माने लक्षमां लेवो ते धर्मनी
शरूआत छे.
वस्तुनुं स्वरूप शुं छे ते समज्या विना लोको बाह्यथी उपवास वगेरेमां धर्म मानी बेठा छे. पण बहारमां
आहार न आव्यो ते तो जडनी क्रिया छे, ते वखते शुभभाव होय तो ते पुण्य छे, ने धर्म तो ते बंनेथी पार
आत्मानी अंर्तद्रष्टिथी थाय छे. शुभराग कर्यो तेनाथी धर्म थतो नथी, तेम ज आहार न कर्यो तेथी शुभराग
थयो–एम पण नथी, ने जीवना शुभभावने लीधे आहारनी क्रिया अटकी गई–एम पण नथी. जीवनो धर्म जुदी
चीज छे, शुभराग जुदी चीज छे ने बहारनी क्रिया जुदी चीज छे,–एम बधां तत्त्वोने जाणवां जोईए. जेने नव
तत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा पण