ज्ञाननुं ज्ञेय थई जाय छे.
थवा छतां ते क्षणे पण चैतन्यज्ञायकमां ज एकतानी द्रष्टि हती तेथी क्षणे क्षणे धर्म थतो हतो. भरत चक्रवर्तीने
छ खंडना राजमां आवुं भान हतुं. तीर्थंकर भगवान माताना पेटमां होय के नाना बाळक होय त्यारे पण तेमने
एवुं ज चैतन्यभान होय छे, सौधर्म–स्वर्गनां ईन्द्र–ईन्द्राणी–शकेन्द्र ने शची ईन्द्राणी–तेमने पण आवुं भान होय
छे, तेओ एकावतारी छे. तीर्थंकर भगवाननी सभामां सिंह, वाघ, सर्प वगेरे तिर्यंचो आवुं भान पामे छे,
नरकमां य कोई कोई जीवो एवुं भान पामे छे, आठ वर्षनुं बाळक पण आवुं भान पामे छे.–ए बधा भेद तो
बाह्य शरीरना छे, अंदर आत्मा तो बधानो सरखो चिदानंदीभगवान छे. तेनुं भान करीने जे जागे तेने एवुं
भान थाय छे.
फक्त बोजारूप छे, तेम जेने आत्मानुं लक्ष नथी ते गमे तेटला शास्त्रो भणे पण तेने शास्त्रनुं ते बधुं भणतर
मात्र मनना बोजारूप छे, अंतरमां चैतन्य–आनंदनी सुगंध तेने आवती नथी,–आत्मानी शांतिनो अनुभव
तेने थतो नथी. तिर्यंच वगेरे जीवोने शास्त्रनुं भणतर न होवा छतां तीर्थंकर भगवान वगेरेनी वाणी सांभळीने
अंतरमां यथार्थ भावोनुं भासन थतां आत्माना आनंदनो अनुभव प्रगट करे छे.
छोडावीने स्वभवनी एकता कराववी छे, अजीवमां कांई सात भेद छोडावीने एकता कराववानुं प्रयोजन नथी.
जीवना द्रव्य, पर्याय बंनेनी ओळखाण करीने, पर्यायभेदनुं लक्ष छोडी अभेद स्वभावमां वळवुं ते प्रयोजन छे.
अहीं पोते भेदनुं लक्ष छोडी स्वभावमां एकाग्र थतां अजीवनिमित्तनुं लक्ष छूटी जाय छे.
अजीवना निमित्ते सात प्रकारो पडे छे, ते सात प्रकारोने लक्षमां लेतां एकरूप चैतन्य ज्ञायक आत्मा अनुभवमां
आवतो नथी. बहारनो बुद्धिनो उघाड घणो होय ते आमां काम आवे तेम नथी पण चैतन्यनी रुचिथी ज्ञानने
अंतरमां वाळवानो अभ्यास करवो ते ज अंतरना अनुभवनो उपाय छे.
एवा अनंतगुणोना पिंडरूप आखी चैतन्यवस्तु ते हुं छुं. आवा पोताना अभेद आत्माने लक्षमां लेवो ते धर्मनी
शरूआत छे.
आत्मानी अंर्तद्रष्टिथी थाय छे. शुभराग कर्यो तेनाथी धर्म थतो नथी, तेम ज आहार न कर्यो तेथी शुभराग
थयो–एम पण नथी, ने जीवना शुभभावने लीधे आहारनी क्रिया अटकी गई–एम पण नथी. जीवनो धर्म जुदी
चीज छे, शुभराग जुदी चीज छे ने बहारनी क्रिया जुदी चीज छे,–एम बधां तत्त्वोने जाणवां जोईए. जेने नव
तत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा पण