: श्रावण : २४७७ : २११ :
नथी तेने अखंड स्वभावनी द्रष्टि थशे नहि. ‘हुं ज्ञायक छुं’–एवो विचार (विकल्प) ते पण परमार्थ श्रद्धा नथी;
अहीं ‘हुं ज्ञायक छुं’ एवा विकल्पने पण नवतत्त्वमांथी जीवतत्त्वमां लई लीधो छे एटले ते पण व्यवहारश्रद्धामां
जाय छे. शुद्ध जीवतत्त्वनी श्रद्धामां ‘हुं ज्ञायक छुं’ एवो विकल्प नथी. ‘हुं ज्ञायक छुं’ एवा विचारमां पण भेदनो
विकल्प छे, ते परमार्थे जीव नथी. पर्यायना लक्षे एक जीवद्रव्यनी पर्यायोपणे अनुभव करवामां आवतां जीव–
अजीव–पुण्य–पाप वगेरे नवतत्त्वो भूतार्थ छे, पण आटले सुधीना विचारमां ज्यां सुधी अटक्यो छे त्यां सुधी
धर्म नथी. नवतत्त्वना भेदना विचार छोडीने एकला शुद्ध जीवनो ज भूतार्थपणे अनुभव करतां धर्म थाय छे.
पहेलांं जीव–पुद्गल बंनेना बंध पर्यायनी वात लीधी हती, अहीं एकला जीवद्रव्यनी अवस्थापणे जोतां
नव तत्त्वो भूतार्थ छे एम कहीने हवे अंतरमां वाळे छे के सर्वकाळे अस्खलित एक जीवद्रव्यना स्वभावनी
समीप जईने अनुभव करवामां आवतां ते नवतत्त्वो अभूतार्थ छे ने ज्ञायक एक आत्मा ज भूतार्थ छे,–आ ज
सम्यग्दर्शननो उपाय छे.
ज्ञायकद्रव्य ज त्रिकाळी अस्खलित छे; निर्मळ अवस्था वखते के विकारी अवस्था वखते पण आत्मानो
ज्ञायकस्वभाव सदा एकरूप छे. ने सात तत्त्वो तो स्खलित छे, क्षणिक छे. नवेतत्त्वना विकल्प क्षणिक छे, ते
नवतत्त्वना विकल्पो छोडीने एक अखंडित ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि करवी ते मोक्षनो मार्ग छे. आत्माना अखंड
स्वभावनी समीप जईने (–एटले के स्वभाव सन्मुख एकाग्र थईने) अनुभव करती वखते नवतत्त्वो लक्षमां
आवतां नथी माटे ते नवतत्त्वो अभूतार्थ छे. अस्थिरता वखते धर्मीने नवतत्त्वना विकल्प आवे तो तेना उपर
तेनी द्रष्टि नथी, तेने ते विकल्पनी मुख्यता नथी पण एक चैतन्यनी ज मुख्यता छे माटे नवे तत्त्वो अभूतार्थ छे;
अने तेथी ते नवे तत्त्वो छोडीने भूतार्थरूप भगवान आत्मा ज एकलो उपादेय छे.
कोईने एम शंका थाय के ‘अरे, नवे तत्त्वने छोडवा जेवा कह्या तो शुं जीव तत्त्वने पण छोडी देवुं?’ तेनुं
समाधान–अरे भाई! धीरा थईने समजो. अत्यारे कई वात चाले छे तेनो आशय पकडो. अहीं विकल्प
छोडावीने निर्विकल्प अनुभव कराववा माटे नवतत्त्वोने हेय कह्या छे, केम के नवतत्त्वना लक्षे विकल्प थया विना
रहेतो नथी ते आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थतो नथी. जीवना विकल्पने पण छोडावीने शुद्ध जीवनो निर्विकल्प
अनुभव कराववा माटे नव तत्त्वमां जीवतत्त्वने पण हेय कह्युं छे. हजी वात सांभळवी पण कठण पडे ते समजीने
अंतरमां अनुभव तो क्यारे करे? नाटक समयसारमां कहे छे के–
बात सुनि चौकि उठे बातही सौं भौंकि उठे,
बात सौं नरम होइ बातही सौं अकरी।
निंदा करै साधु की प्रशंसा करै हिंसक की,
स्राता मानैं प्रभुता असाता मानैं फकरी।।
मोख न सुहाइ दोष देखै तहाँ पैठि जाइ,
कालसौं डराइ जैसैं नाहर सौं बकरी।
ऐसी दुरबुद्धि भूली झूठ के झरोखे झूली,
फूली फिरै ममता जंजीरनिसौं जकरी।।
३९।।
– सर्वविशुद्धद्वार.
आमां दुर्बुद्धि जीवनी परिणतिनुं वर्णन कर्युं छे; तेमां कहे छे के अज्ञानी जीव हित–अहितने विचारतो
नथी अने सत्य वात सांभळतां ज चोंकी ऊठे छे, वात काने पडतां ज कूतरानी जेम भोंकवा लागे छे; पोतानी
मनगमती वात सांभळतां नरम थई जाय छे अने अणगमती वात थाय तो चिडाई पडे छे. वळी ते जीव
मोक्षमार्गी साधुओनी निंदा करे छे, ने हिंसक अधर्मीओनी प्रशंसा करे छे, सातना उदयमां पोताने महान माने
छे ने असाताना उदयमां तुच्छ गणे छे; तेने मोक्ष तो नथी रुचतो ने क्यांय दुर्गुण देखवामां आवे तो तेने झट
अंगीकार करी ल्ये छे; वळी तेने शरीरमां अहंबुद्धि होवाने लीधे ते मोतथी तो एवो डरे छे के जेवी वाघथी बकरी
डरे. ए प्रमाणे तेनी मूर्खता अज्ञानथी असत्यना मार्गमां झूली रही छे अने वळी ममतानी सांकळथी जकडाईने
वृद्धि पामी रही छे.
अहीं कहे छे के भाई रे, सांभळ तो खरो, आ शुं वात छे? धर्मनी सत्य वात काने पडवी दुर्लभ छे.
धीरो थईने अंतरमां समजे तो आ वातना महिमानी खबर पडे. शुद्धपर्यायनुं लक्ष करीने तेनो आदर करवा