Atmadharma magazine - Ank 094
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २१२ : : आत्मधर्म : ९४
जतां पण विकल्प ऊठे छे ने राग थाय छे, त्रिकाळी चैतन्यतत्त्वना आदरमां ते पर्याय प्रगटी जाय छे. पर्यायना
आश्रयमां अटकतां निर्मळपर्याय थती नथी पण शुद्ध द्रव्यना आश्रयमां अटकतां ते पर्याय पोते निर्मळ थई
जाय छे. निर्मळ पर्याय वस्तुना आधारे आवे छे, एटले निर्मळ पर्याय प्रगट करनारनी द्रष्टि वस्तु उपर होय
छे, पर्याय उपर तेनी द्रष्टि होती नथी. ते वस्तुद्रष्टिमां नवे तत्त्वो अभूतार्थ छे. नवे तत्त्वोने अभूतार्थ कहीने
अहीं पर्यायद्रष्टिने ज हेय कही छे, ने अखंड चैतन्यतत्त्व सर्व काळे अस्खलित छे तेनी द्रष्टि करावी छे. संवर,
निर्जरा के मोक्ष वगेरे कोई तत्त्व सर्वकाळे अस्खलित नथी तेथी ते सम्यग्दर्शननो विषय नथी. सर्वकाळे
अस्खलित तो एक चैतन्यद्रव्य ज छे, ते ज सम्यग्दर्शननुं ध्येय छे. एटले भूतार्थनयथी जोतां नवे तत्त्वोमां एक
जीव ज प्रकाशमान छे, तेना अनुभवथी ज सम्यग्दर्शनादि थाय छे. आवा भूतार्थरूप शुद्धआत्माने प्रतीतमां
लेवो ते आ गाथानो सरवाळो छे; ने ए ज दरेक आत्मार्थी जीवनुं कर्तव्य छे.
[‘आत्मार्थी जीवनुं पहेलुं कर्तव्य’ बतावनारी आ लेखमाळा आवता अंके पूरी थशे.]
धर्मनुं फळ
शरीरना रोग मटाडवानुं कार्य धर्मनुं नथी. पूर्वनां पुण्य होय त्यारे शरीर
नीरोगी थाय छे; धर्मना फळथी शरीरनो रोग मटे एम मानार धर्मना स्वरूपने
समज्यो ज नथी; पुण्य शुभपरिणामथी थाय अने धर्म आत्मानो शुद्धस्वभाव
प्रगट करवाथी थाय, तेनी तेने खबर नथी. सनत्कुमार चक्रवर्तीए दीक्षा लीधा बाद
ते महान धर्मात्मा मुनिे घणां वर्षो सुधी शरीरमां तीव्र रोग रह्यो, छतां शरीर
उपर धमन असर कई पण न थई. धमथ शरर नरग रह तम नह, पण
धर्मनां फळमां तो आत्मामां अपूर्व आनंदनो अनुभव प्रगटे, ने पुण्य अने शरीर
वगेरेनो संबंध ज न थाय. मोक्षमार्गमां पुण्यनो पण निषेध छे; तेने बदले अत्यारे
तो धर्मना नामे लोको फावे तेम हांकये राखे छे, अने कहे छे के पुण्य करो, तेनाथी
मनुष्य – देवनां शरीर मळशे अने पछी परंपराए मोक्ष थशे. आत्मानी समजण
करवानी तो क्यांय वात ज न आवी. आत्माने भूलीने आवी वातो – एटले के जीव
रागद्वेषनो कर्ता, तेना फळनो भोक्ता एवी काम भोग बंधनी कथा – तो जीवे
अनंतवार सांभळी छे. तेथी श्री आचार्यभगवान कहे छे के हुं तने आत्माना
एकत्व विभक्त स्वभावनी वात संभळावुं छुं; जडना संयोगनी रुचि छोड, पुण्यथी
धर्म नथी.पुण्य मारां, शुभाव करतां करतां धीमे धीमे धर्म थशे – एवी झेरी
मान्यतानुं अर्थात् राग – द्वेष – अज्ञानभावनुं, वीतरागनां निर्दोष वचनो, विरेचन
करावी दे छे.आत्माना सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चारित्रथी विरुद्धभावने कोई धर्म कहे
तो ते विकथा छे.
(जाुओ – समयसार – प्रवचनो भाग १ पृ. १६ – १७)