साधकने ते विकल्प आवे पण तेने तेनी मुख्यता नथी, मुख्यता तो शुद्धचैतन्यनी ज छे, तेना ज आधारे
साधकदशा छे. अनंत गुणनो पिंड जे आत्मा छे तेनी द्रष्टिमां नवतत्त्वना विकल्पोनो अभाव छे, एटले
धर्मात्मानी द्रष्टिमां एकरूप चैतन्यतत्त्वनी ज अस्ति छे, आवी द्रष्टि ते ज दर्शनविशुद्धि छे ने ते ज प्रथम धर्म छे.
बीजी शैलीथी कहे छे.
अने पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष–ए विकारहेतुओ केवळ अजीव छे. आवा आ
नवतत्त्वो, जीवद्रव्यना स्वभावने छोडीने, पोते अने पर जेमनां कारण छे एवा एक द्रव्यना पर्यायोपणे
अनुभव करवामां आवतां भूतार्थ छे अने सर्वकाळे अस्खलित एक जीवद्रव्यना स्वभावनी समीप जईने
अनुभव करवामां आवतां तेओ अभूतार्थ छे–असत्यार्थ छे. तेथी आ नवे तत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक जीव ज
प्रकाशमान छे.” पहेलांं अज्ञानीना नवतत्त्वनी वात हती तेमां जीव अने पुद्गलना संयोगथी जोवानुं कथन
हतुं; अहीं ज्ञानीना नवतत्त्वना विकल्पनी वात छे, तेमां जीव अने अजीव ए बंने स्वतंत्र द्रव्यो छे तथा जीव
अने अजीव बंनेमां जुदां जुदां सात तत्त्वो छे–ते वात लीधी छे. अंर्तस्वभावनी द्रष्टिथी जोईए तो एक
ज्ञायकभाव ज भूतार्थ छे ने नवतत्त्वो अभूतार्थ छे. आ समज्या वगर व्रत–पूजादि भाव ते बधा रणमां पोक
जेवां छे, तेनाथी जीवने किंचित् धर्म थतो नथी.
क्षणिक डाघने ज जोया करवो ते बाह्यद्रष्टि छे. तेम आत्मामां त्रिकाळी ज्ञायक अंर्तस्वभावने जोवो ते अंर्तद्रष्टि
छे ने क्षणिक विकारी प्रगट पर्यायने ज लक्षमां लईने तेना विचारमां रोकावुं ते बाह्यद्रष्टि छे. ते बाह्यद्रष्टिमां
भेदरूप नवतत्त्वो भूतार्थ छे, पण अंर्तस्वभावनी द्रष्टिमां ते नवतत्त्वो अभूतार्थ छे ने एक ज्ञायक भगवान ज
भूतार्थ छे. जीव अने अजीवना संबंधथी विचारतां नवतत्त्वना विकल्प ऊठे छे, ते पर्यायमां छे खरा, पण
अभेद चैतन्यस्वभावमां ढळीने अनुभव करतां ते बधा अभूतार्थ छे, एकला चैतन्यने लक्षमां लईने अनुभव
करतां नवतत्त्वना विकल्पो ऊठता नथी.–आवो अनुभव करवो ते ज सम्यग्दर्शन धर्म छे. पण ते पहेलांं
विकल्पदशामां, जे नवतत्वनुं वर्णन कर्युं तेने बराबर जाणवा जोईए.
करे? एवा अनुभव वगर धर्म थाय नहि ने संसार भ्रमण टळे नहि.
आत्मा तो शुद्ध ज्ञायक चैतन्य छे, अने तेनी अवस्थामां जे क्षणिक जीव–अजीवादि तत्त्वना विकल्प छे ते विकार
छे; ज्ञायक चैतन्यस्वभाव पोते ते विकारनो हेतु नथी पण ते विकारनो हेतु अजीव छे. पर्यायमां ज्ञायकपणुं
छूटीने जे विकार थाय छे ते जीवना विकार छे ने तेनुं निमित्त अजीव छे. जीवमां पोतानी अवस्थानी योग्यताथी
पुण्य–पाप वगेरे सात तत्त्वो थाय छे ने तेमां निमित्तरूप अजीव छे ते अजीवनी अवस्थामां पण पुण्य–पाप
वगेरे सात प्रकारो पडे छे; ते बंने (–जीव अने अजीवनी अवस्थाओ) भिन्न छे. एकला ज्ञायकमां सात तत्त्वो
नथी तेथी ते स्वभावना लक्षे सात तत्त्वना विकल्प थता