Atmadharma magazine - Ank 094
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २०८ : : आत्मधर्म : ९४
क्रियाथी जीवनो धर्म न थाय,–एवा प्रकारे जीव अजीवनी भिन्नता जाणीने नवे तत्त्वोने बराबर जाणवा
ते तो हजी दर्शनशुद्धि थया पहेलांंनी भूमिका छे. पण आ नवतत्त्वना विकल्पमिश्रित विचारो अभूतार्थ छे.
साधकने ते विकल्प आवे पण तेने तेनी मुख्यता नथी, मुख्यता तो शुद्धचैतन्यनी ज छे, तेना ज आधारे
साधकदशा छे. अनंत गुणनो पिंड जे आत्मा छे तेनी द्रष्टिमां नवतत्त्वना विकल्पोनो अभाव छे, एटले
धर्मात्मानी द्रष्टिमां एकरूप चैतन्यतत्त्वनी ज अस्ति छे, आवी द्रष्टि ते ज दर्शनविशुद्धि छे ने ते ज प्रथम धर्म छे.
पहेलांं तो बाह्य स्थूळद्रष्टिथी जोतां नवतत्त्वो भूतार्थ कह्या अने अंतरना स्वभावनी समीप जईने शुद्ध
जीवनो अनुभव करतां ते नवतत्त्वोने अभूतार्थ कह्या; एवो अनुभव करवो ते दर्शनविशुद्धि छे. हवे ए वात
बीजी शैलीथी कहे छे.
“एवी रीते अंर्तद्रष्टिथी जोईए तो:–ज्ञायकभाव जीव छे अने जीवना विकारनो हेतु अजीव छे. वळी
पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष–ए जेमनां लक्षण छे एवा तो केवळ जीवना विकारो छे
अने पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष–ए विकारहेतुओ केवळ अजीव छे. आवा आ
नवतत्त्वो, जीवद्रव्यना स्वभावने छोडीने, पोते अने पर जेमनां कारण छे एवा एक द्रव्यना पर्यायोपणे
अनुभव करवामां आवतां भूतार्थ छे अने सर्वकाळे अस्खलित एक जीवद्रव्यना स्वभावनी समीप जईने
अनुभव करवामां आवतां तेओ अभूतार्थ छे–असत्यार्थ छे. तेथी आ नवे तत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक जीव ज
प्रकाशमान छे.” पहेलांं अज्ञानीना नवतत्त्वनी वात हती तेमां जीव अने पुद्गलना संयोगथी जोवानुं कथन
हतुं; अहीं ज्ञानीना नवतत्त्वना विकल्पनी वात छे, तेमां जीव अने अजीव ए बंने स्वतंत्र द्रव्यो छे तथा जीव
अने अजीव बंनेमां जुदां जुदां सात तत्त्वो छे–ते वात लीधी छे. अंर्तस्वभावनी द्रष्टिथी जोईए तो एक
ज्ञायकभाव ज भूतार्थ छे ने नवतत्त्वो अभूतार्थ छे. आ समज्या वगर व्रत–पूजादि भाव ते बधा रणमां पोक
जेवां छे, तेनाथी जीवने किंचित् धर्म थतो नथी.
अभेदरूप ज्ञायक आत्मा ते अंर्ततत्त्व छे; तेने अंतरमां न जोतां वर्तमान पूरती क्षणिक हालतनो ज
विचार करवो तेने बाह्यद्रष्टि कहेवामां आवे छे. जेम आखा हीराना अंर्त सत्त्वने जोवुं ते अंर्तद्रष्टि छे ने तेना
क्षणिक डाघने ज जोया करवो ते बाह्यद्रष्टि छे. तेम आत्मामां त्रिकाळी ज्ञायक अंर्तस्वभावने जोवो ते अंर्तद्रष्टि
छे ने क्षणिक विकारी प्रगट पर्यायने ज लक्षमां लईने तेना विचारमां रोकावुं ते बाह्यद्रष्टि छे. ते बाह्यद्रष्टिमां
भेदरूप नवतत्त्वो भूतार्थ छे, पण अंर्तस्वभावनी द्रष्टिमां ते नवतत्त्वो अभूतार्थ छे ने एक ज्ञायक भगवान ज
भूतार्थ छे. जीव अने अजीवना संबंधथी विचारतां नवतत्त्वना विकल्प ऊठे छे, ते पर्यायमां छे खरा, पण
अभेद चैतन्यस्वभावमां ढळीने अनुभव करतां ते बधा अभूतार्थ छे, एकला चैतन्यने लक्षमां लईने अनुभव
करतां नवतत्त्वना विकल्पो ऊठता नथी.–आवो अनुभव करवो ते ज सम्यग्दर्शन धर्म छे. पण ते पहेलांं
विकल्पदशामां, जे नवतत्वनुं वर्णन कर्युं तेने बराबर जाणवा जोईए.
हजी तो जे जीव निवृत्ति लईने सत्समागमे यथार्थ वातनुं श्रवण पण न करे ते जीव तत्त्वनी धारणा
करीने अंतरमां निर्णय क्यांथी करे? अने तत्त्वना निर्णय विना निःसंदेह थईने अंतरमां अनुभव कई रीते
करे? एवा अनुभव वगर धर्म थाय नहि ने संसार भ्रमण टळे नहि.
सम्यग्दर्शनना विषयमां तो चैतन्यनी एकता ज छे, तेमां नवतत्त्वना भंग–भेद नथी. पहेलांं
बाह्यद्रष्टिथी नवतत्त्वो बतावीने अंतरमां लई गया. हवे अंर्तद्रष्टिथी वात उपाडे छे. अंर्तद्रष्टिथी जोतां
आत्मा तो शुद्ध ज्ञायक चैतन्य छे, अने तेनी अवस्थामां जे क्षणिक जीव–अजीवादि तत्त्वना विकल्प छे ते विकार
छे; ज्ञायक चैतन्यस्वभाव पोते ते विकारनो हेतु नथी पण ते विकारनो हेतु अजीव छे. पर्यायमां ज्ञायकपणुं
छूटीने जे विकार थाय छे ते जीवना विकार छे ने तेनुं निमित्त अजीव छे. जीवमां पोतानी अवस्थानी योग्यताथी
पुण्य–पाप वगेरे सात तत्त्वो थाय छे ने तेमां निमित्तरूप अजीव छे ते अजीवनी अवस्थामां पण पुण्य–पाप
वगेरे सात प्रकारो पडे छे; ते बंने (–जीव अने अजीवनी अवस्थाओ) भिन्न छे. एकला ज्ञायकमां सात तत्त्वो
नथी तेथी ते स्वभावना लक्षे सात तत्त्वना विकल्प थता