कारणरूप आत्मभ्रांति छे, ते आत्मभ्रांति छेदवानो उपाय शुं छे ते जीवे कदी जाण्युं नथी. आत्मभ्रांतिने
मिथ्यात्व कहेवाय छे, ते मिथ्यात्व केम टळे एटले के सम्यकत्व केम थाय ते वात कदी जाणी नथी. नव तत्त्वोने
सम्यक् अंर्तभानथी जाणतां आत्मभ्रांति टळीने सम्यग्दर्शन थाय छे अने जीवने धर्मनी शरूआत थाय छे–एम
अहीं श्री आचार्यदेव बतावे छे.
सहेली छे. आत्मामां त्रिकाळस्वभाव अने वर्तमान अवस्था एम बे पडखां छे, त्रिकाळस्वभाव एकरूप छे ने
अवस्थामां अनेक प्रकार छे. तेमां त्रिकाळी एकरूप स्वभावनी द्रष्टि छोडीने बाह्य स्थूळद्रष्टिथी जोतां
नवतत्त्वोना विकल्प विद्यमान छे, ‘हुं जीव छुं, शरीरादि अजीव छे, दयादि पुण्य छे, हिंसादि पाप छे, पुण्य–पाप
बंने आस्रव छे, ते आस्रवने रोकवा ते संवर छे, कर्म खरे ते निर्जरा छे, पुण्य–पाप ते भावबंधन छे अने पूर्ण
शुद्धता थतां कर्मोनो तद्न नाश ते मोक्ष छे’–एम नवतत्त्वनो रागमिश्रित विचारथी निर्णय करतां ते नवतत्त्वो
भूतार्थ छे. पण एकरूप ज्ञायक आत्मानो अनुभव करवा माटे तो आ विकल्परूप नवे तत्त्वो छोडवा जेवा छे.
एकला नव तत्त्वोनी रागमिश्रित श्रद्धा ते पण हजी मिथ्यात्व छे.
पुण्य–पाप–आस्रव–बंधने हेय अने संवर–निर्जरा–मोक्षने कथंचित् उपादेय कहेवाय छे, पण द्रव्यद्रष्टिमां तो नवे
तत्त्वो हेय छे,–द्रव्यद्रष्टिमां नवतत्त्वना भेद नथी, एकलो शुद्ध आत्मा ज छे. शुद्ध आत्मा ज भूतार्थ छे, तेना ज
आश्रये सम्यग्दर्शनादि थाय छे, नवतत्त्वो अभूतार्थ छे, तेना आश्रये सम्यग्दर्शनादि थता नथी पण राग ज
थाय छे, माटे अहीं नवतत्वने हेय कहेवामां आव्या छे. नवतत्त्वनो रागमिश्रित अनुभव छे ते आत्मधर्म नथी;
अंतर्मुख स्वभावमां वळतां परिपूर्ण एक आत्मा ज प्रतीतमां आवे ने आत्मभंग न थाय ते ज सम्यग्दर्शन–
धर्म छे.
मान्युं कहेवाय; पुण्य क्षणिक विकार छे, ते धर्म नथी, जीवनो धर्म जीवना आश्रये थाय, अजीवनी