Atmadharma magazine - Ank 094
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २०६ : : आत्मधर्म : ९४
वसु एटले आठ कर्म अने बिंदु एटले तेनो नाश करनार, ए रीते आठ कर्मोनो नाश करनार एवो
वसुबिंदुनो अर्थ छे. बे हजार वर्ष पहेलांं चंद्रप्रभ भगवाननी प्रतिष्ठा माटे जे आ वसुबिंदु प्रतिष्ठापाठ बन्यो
तेनो उपयोग आजे आ सौराष्ट्रमां अहीं चंद्रप्रभ भगवाननी प्रतिष्ठा माटे थाय छे. ए रीते कुदरती मेळ थई
गयो छे.
(३०) शास्त्रमां आवता व्यवहारकथन अने तेनो परमार्थ आशय
ए प्रतिष्ठापाठमां जिनबिंबनी प्रतिष्ठा करावनार श्रावकनुं वर्णन आवे छे. ते श्रावक श्री आचार्यदेव
पासे जईने आज्ञा मागे छे के–हे प्रभो! हुं आ लक्ष्मीने कुलटा समान अने अनित्य जाणुं छुं. हे स्वामी! आ
अनित्य लक्ष्मी उपरनो राग घटाडीने तेनो सदुपयोग कई रीते करुं? श्री जिनमंदिर बंधावीने श्री अरिहंत
भगवाननी पंचकल्याणक प्रतिष्ठानो महोत्सव करवानी मारी भावना छे. ए रीते लक्ष्मीनो सदुपयोग करीने
मारुं जीवन सफळ करुं, ते माटे हे नाथ! आज्ञा आपो. पछी श्री आचार्यदेव तेने आज्ञा आपता कहे छे के धन्य
छे, तुं तारा कुळमां सूर्य समान छे.
जुओ, खरेखर आत्मा परद्रव्यनुं कांई ग्रहण के त्याग करी शकतो नथी. लक्ष्मी वगेरे जड छे, आत्मा
तेनी क्रिया करी शकतो नथी. छतां प्रतिष्ठापाठमां लक्ष्मीनो सदुपयोग करवानी वात आवी, ते व्यवहारथी कथन
छे, आत्मा लक्ष्मीनी क्रिया करी शके छे–एम त्यां नथी बताववुं, परंतु त्यां राग घटाडवानुं तात्पर्य छे. कथन तो
निमित्तथी आवे पण वस्तुस्वरूप लक्षमां राखीने तेना भाव समजवा जोईए. रागरहित आत्मस्वभावने
जाणीने तेमां ठरवुं ते सर्व शास्त्रोनुं प्रयोजन छे. शास्त्रोमां सूत्रनुं तात्पर्य दरेक सूत्र दीठ जुदुं होय छे, कोईवार
व्यवहारनुं, निमित्तनुं के संयोगनुं ज्ञान कराववा अनेक प्रकारनुं कथन आवे, पण शास्त्रनुं तात्पर्य तो
वीतरागभाव पोषवानुं ज छे. परद्रव्यनी क्रिया आत्मा करी शके छे एम बताववानुं शास्त्रनुं प्रयोजन नथी.
छतां जे ऊंधा अर्थ समजे अने रागभावने पोषवानो आशय काढे ते जीव शास्त्रना आशयने समज्यो नथी.
× × ×
(३१) आचार्यदेवनी भावना
अहीं श्री प्रवचनसारनी १५९ मी गाथा चाले छे, तेमां श्री आचार्यदेव कहे छे के शुद्धोपयोग प्रगट करीने
हुं सदाय आत्मामां निश्चलपणे उपयुक्त रहुं छुं. जो के आ टीका लखाय छे त्यारे तेमने शुभ विकल्प वर्ते छे, पण
अंर्तस्वभावना आदरमां ते विकल्पनो निषेध वर्ते छे; ते विकल्पना आश्रयमां अटकवानी भावना नथी पण
शुद्धआत्माना आश्रयनी ज भावना छे. तेथी कहे छे के शुद्ध उपयोग प्रगट करीने हुं सदा आत्मामां ज
निश्चलपणे उपयुक्त रहुं छुं.–आ मारो शुद्धोपयोगनो अभ्यास छे.
(३२) आत्मानी समजण
सौथी पहेलांं सत्समागमे आत्मानी साची समजण करवी ते शुद्धोपयोगनुं कारण छे. अनंतकाळमां जीवे
बधुं कर्युं छे पण आत्मानी साची समजण कदी करी नथी. आत्मानी साची समजण अपूर्व छे, जो एक समय
पण आत्माने ओळखे तो मुक्तिनो रस्तो थया वगर रहे नहि.
.श्रेणिक राजा.
जेने सम्यग्दर्शननुं भान नथी तेनी मुक्ति नथी. सम्यग्दर्शन होय पण चारित्रदशा न होय
छतां श्रेणिकराजा जेवा एकावतारी गृहस्थदशामां अनंत थई गया. ते सम्यग्दर्शननो महिमा छे.
श्रेणिकराजाने एक पण व्रत न हतुं, छतां आत्माना भानमां रही, क्षायिकसम्यग्दर्शन प्रगट
करी, तीर्थंकर नामकर्म–‘जगत्गुरुनुं बिरुद’ बांध्युं छे. अत्यारे प्रथम नरकमां, चोराशी हजार वर्षनुं
आयुष्य बांधीने गया छे. त्यां ते काळ पूरो करी, आ भरतक्षेत्रमां जन्म लई पहेला तीर्थंकर थशे,
अने जगतना तारक थशे, ईन्द्रो तेमना चरण सेवशे. सम्यग्दर्शन विना आवां पुण्य पण बंधाय नहि.
–समयसार प्रवचनो भाग १ पृ. १५४