: श्रावण : २४७७ : २०५ :
–आवी दशा ते मोक्षनुं कारण छे, आवी दशा प्रगट्या पहेलांं यथार्थ श्रद्धा–ज्ञान प्रगट करवा ते पण
सम्यग्दर्शन–ज्ञानरूप धर्म छे. परद्रव्यानुसार जे पुण्य–पापना भाव थाय तेमां आत्मानो धर्म नथी. स्वद्रव्यने
अनुसार ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगटे छे, ते ज धर्म छे. आत्मानो धर्म आत्मानी सन्मुखताथी पोतानी
निर्मळ अवस्थामां ज थाय छे, ए सिवाय कोई परनी सन्मुखताथी के क्यांय पर्वत उपर, गुफामां, मूर्तिमां के
देहादिनी क्रियामां आत्मानो धर्म नथी. आम जाणनार धर्मात्मा स्वसन्मुख शुद्धोपयोगनी ज भावना करे छे के
हुं–आत्मा, मारा सिवाय सर्वे परद्रव्योमां राग–द्वेषरहित–मध्यस्थ थईने,–अशुद्धोपयोग रहित थईने, मार
शुद्धात्मस्वरूपने ज निश्चलपणे ध्यावुं छुं.–आवी दशा प्रगटे ते साक्षात् धर्म छे ने ते ज मुक्तिनुं कारण छे. हजी
आ दशानुं भान पण नथी अने पुण्यथी–रागथी ने जडनी क्रियाथी धर्म माने छे ते तो धर्मथी घणा दूर,
मिथ्याद्रष्टि छे.
(२६) भयंकर भावरोग अने तेनाथी बचवानो उपाय
पोताना आत्मस्वरूपनी भ्रांति ए ज सौथी महापाप छे, ने ए ज जन्म–मरणनो भयंकर भावरोग छे.
ते मिथ्या भ्रांति केम छेदाय? तेनी वात चाले छे. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
आत्मभ्रांति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण, गुरुआज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार, ध्यान.
गुरुआज्ञा एटले श्रीगुरुए जेवो आत्मस्वभाव कह्यो तेवो समजवो तथा तेनो विचार ने ध्यान करवुं ते
ज भावरोग टाळवानो उपाय छे. पहेलांं शुभ–अशुभरहित चैतन्यस्वरूप आत्मस्वभावनुं भान करवुं ते ज
आत्मभ्रांतिथी छूटवानो उपाय छे.
(२७) आत्मानी प्रभुता
हुं अनादिअनंत पवित्र गुणोनो सागर छुं, जेटला गुणो सिद्धभगवानना आत्मामां छे तेटला ज गुणो
मारामां छे. सिद्धभगवान जेवी ज मारी प्रभुता मारामां भरी छे,–आम पोतानी प्रभुतानो विश्वास करे तो
तेमां ठरवानो अभ्यास करे. पण जीवने अनादिथी पोतानी प्रभुतानो विश्वास आवतो नथी. कस्तूरिया मृगनी
जेम अज्ञानी जीव पोतानी परमात्मशक्तिने भूलीने बाह्यमां भमे छे, तेथी स्वद्रव्यनो आश्रय चूकीने
परद्रव्यानुसार परिणमे छे, ते अशुद्धोपयोग छे. साचुं भान थया पछी जे परलक्षे शुभाशुभ परिणति थाय ते
पण अशुद्धोपयोगमां आवे छे. अने स्वभावनी प्रभुताने ओळखीने तेमां लीन रहेतां शुभाशुभ परिणति न
थाय ते शुद्धोपयोग छे. अशुद्ध उपयोग टळीने शुद्धोपयोग केम प्रगटे तेनी आ वात चाले छे.
(२८) धर्मी जीवनी शुद्धोपयोगभावना
ज्ञानी–मुनि कहे छे के–स्वद्रव्य तरफ वळतां शुद्धोपयोग थाय छे ने परद्रव्य तरफ वळतां अशुद्धोपयोग छे;
माटे स्व. परद्रव्योने भिन्न जाणीने हुं समस्त परद्रव्यो प्रत्ये मध्यस्थ थाउं छुं; ए रीते मध्यस्थ थईने हुं
परद्रव्यानुसार परिणतिथी थता अशुद्धोपयोगथी मुक्त थाउं छुं अने केवळ स्वद्रव्यानुसार परिणतिने ग्रहवाथी
शुद्धोपयोरूप परिणमुं छुं, अहीं ज्ञानप्रधान कथन होवाथी अशुद्धोपयोगने छोडवानी वात करी छे, खरेखर
‘अशुद्धोपयोगने छोडुं’ एवा लक्षे ते छूटतो नथी, पण स्वद्रव्यने लक्षमां लईने तेना ध्यानमां ठर्यो त्यां
अशुद्धोपयोग थयो ज नहि, एटले अशुद्धोपयोगने छोड्यो–एम कहेवाय छे. सम्यग्द्रष्टिने चोथा गुणस्थाने पण
आवा शुद्धोपयोगनी ज भावना छे, वच्चे प्रतिमा के महाव्रतादिनो शुभराग आवे तेनी भावना नथी ने तेमां ते
धर्म मानता नथी. शुभ–अशुभ उपयोग तो परद्रव्यना संयोगनुं एटले के संसारनुं कारण छे, ने शुद्धउपयोग ते
मुक्तिनुं कारण छे. शुद्धउपयोग कहेतां तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे आवी जाय छे.
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(२९) वसुबिंदु प्रतिष्ठापाठ
भगवान श्री कुंदकुंदस्वामीना पट्टशिष्य श्री जयसेनाचार्यदेवे प्रतिष्ठापाठ बनाव्यो छे; श्री कुंदकुंदप्रभुए
तेमने प्रतिष्ठापाठ बनाववानी आज्ञा करी हती; ए रीते लगभग बे हजार वर्ष पहेलांं श्री चंद्रप्रभ स्वामी
भगवाननी प्रतिष्ठाने माटे गुरु कुंदकुंदस्वामीनी आज्ञाथी बे दिवसमां जयसेनाचार्ये आ प्रतिष्ठापाठ बनाव्यो
हतो; तेथी श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे तेमनुं नाम ‘वसुंबिंदु’ राख्युं,