अशुद्धोपयोगनुं कारण नथी. तेम ज कर्मनो उदय वगेरे अन्य कारणो पण अशुद्धउपयोगनुं कारण नथी. कर्मो तो
आत्माना ज्ञाननुं ज्ञेय छे. परद्रव्यसन्मुख परिणति ते एक ज शुद्धोपयोगनुं कारण छे; एक ज अशुद्धतानुं कारण
छे अने स्वद्रव्यअनुसार परिणति ते एक ज कारण छे, बीजुं कोई कारण नथी–एम अस्ति–नास्तिथी अनेकांत
छे. परद्रव्यो आत्माने विकार करावे एम मानवुं ते एकांत छे.
के छोडवानुं कार्य आत्मा करी शकतो ज नथी, ते तो ज्ञाननुं ज्ञेय छे. अने राग–द्वेष थाय तेनो करनार–छोडनार
पण आत्मा व्यवहारथी छे, खरेखर धर्मी तेना ज्ञाता ज छे. रागने छोडुं–एवी द्रष्टिथी राग छूटतो नथी, पण
स्वभावना आश्रये रहेतां राग–द्वेष थता ज नथी, एटले राग–द्वेष छोडया एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे.
आत्मस्वभावनो आश्रय करुं छुं. सर्वे परद्रव्यो माराथी भिन्न छे माटे तेमना प्रत्ये हुं अत्यंत मध्यस्थ थाउं छुं.
खरेखर परद्रव्य सामे जोईने तेना प्रत्ये मध्यस्थ थवातुं नथी, पण स्वद्रव्यमां लीन रहेतां समस्त परद्रव्यो प्रत्ये
मध्यस्थता थई जाय छे. स्वद्रव्यमां लीन रहेवुं ते अस्ति छे ने परद्रव्य प्रत्ये मध्यस्थता थवी ते नास्ति छे.
काढी नांख्यो. व्यवहाररत्नत्रय पण परद्रव्यना अवलंबने छे, माटे ते प्रत्ये पण हुं मध्यस्थ छुं, एटले ते
व्यवहाररत्नत्रयनुं अवलंबन छोडीने अभेदआत्मानो ज आश्रय करुं छुं. शास्त्रमां व्यवहाररत्नत्रयने
निश्चयरत्नत्रयनुं कारण कह्युं होय ते वात उपचारनी छे; अहीं व्यवहाररत्नत्रयने हेय कहीने तेनो आश्रय
छोडाव्यो छे; केम के खरेखर व्यवहाररत्नत्रय ते निश्चयरत्नत्रयनुं कारण नथी पण स्वद्रव्यानुसार परिणति ते
ज निश्चय रत्नत्रयनुं (शुद्धोपयोगनुं) कारण छे. व्यवहाररत्नत्रय ते शुभोपयोगरूप छे ने निश्चयरत्नत्रय ते
शुद्धोपयोग रूप छे.
पंचमहाव्रतादि शुभरागमां रहेवानो अभ्यास नथी करता पण शुद्धोपयोगमां रहेवानो अभ्यास करे छे. अज्ञानी
जीव परद्रव्यमां राग–द्वेष करीने अशुद्धतारूपे ज थाय छे, ए सिवाय परद्रव्यनुं तो ते पण कांई करी शकतो नथी.
अज्ञानीने स्व–परना जुदापणानुं भान पण नथी एटले तेने तो सदा य परद्रव्यानुसार परिणतिथी
अशुद्धोपयोग ज थाय छे. ज्ञानी स्व–परनी भिन्नतानुं भान करीने, स्वद्रव्यानुसार परिणतिथी शुद्धोपयोगमां ज
रहेवानी भावना करे छे.
स्वभावमां हुं शांतिनो सागर छुं, मारी सिद्धदशा मारामां पडी छे–आवा मारा द्रव्यने हुं ध्यावुं छुं,