Atmadharma magazine - Ank 094
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २०४ : : आत्मधर्म : ९४
आत्मा ते पुण्य–पापनो कर्ता पण नथी. कर्मो आत्माने विकार करावतां नथी, पण आत्मानी
परद्रव्यअनुसार परिणति ते एक ज अशुद्ध उपयोगनुं कारण छे, अन्य कोई कारण नथी. आत्मानो स्वभाव
अशुद्धोपयोगनुं कारण नथी. तेम ज कर्मनो उदय वगेरे अन्य कारणो पण अशुद्धउपयोगनुं कारण नथी. कर्मो तो
आत्माना ज्ञाननुं ज्ञेय छे. परद्रव्यसन्मुख परिणति ते एक ज शुद्धोपयोगनुं कारण छे; एक ज अशुद्धतानुं कारण
छे अने स्वद्रव्यअनुसार परिणति ते एक ज कारण छे, बीजुं कोई कारण नथी–एम अस्ति–नास्तिथी अनेकांत
छे. परद्रव्यो आत्माने विकार करावे एम मानवुं ते एकांत छे.
(२१) आत्मानुं कार्य
आत्मस्वभावने यथार्थ समज्या वगर अनंतकाळमां जीवे व्रतादि कर्यां छे, पण तेथी आत्मामां धर्मनो
कांई लाभ थयो नथी, ऊलटो ते व्रतना रागमां धर्म मानीने जीव अनंत संसारमां रखडयो छे. परद्रव्यने लेवानुं
के छोडवानुं कार्य आत्मा करी शकतो ज नथी, ते तो ज्ञाननुं ज्ञेय छे. अने राग–द्वेष थाय तेनो करनार–छोडनार
पण आत्मा व्यवहारथी छे, खरेखर धर्मी तेना ज्ञाता ज छे. रागने छोडुं–एवी द्रष्टिथी राग छूटतो नथी, पण
स्वभावना आश्रये रहेतां राग–द्वेष थता ज नथी, एटले राग–द्वेष छोडया एम व्यवहारथी कहेवामां आवे छे.
(२२) साची मध्यस्थता
राग–द्वेषरूप अशुद्धउपयोग परद्रव्यना आश्रये ज थाय छे. मारा स्वद्रव्यना आश्रये अशुद्धता थाय नहि,
तेथी अशुद्ध उपयोगना नाश माटे आ हुं सर्वे परद्रव्योमां मध्यस्थ थाउं छुं, एटले के सर्वे परद्रव्योनुं लक्ष छोडीने
आत्मस्वभावनो आश्रय करुं छुं. सर्वे परद्रव्यो माराथी भिन्न छे माटे तेमना प्रत्ये हुं अत्यंत मध्यस्थ थाउं छुं.
खरेखर परद्रव्य सामे जोईने तेना प्रत्ये मध्यस्थ थवातुं नथी, पण स्वद्रव्यमां लीन रहेतां समस्त परद्रव्यो प्रत्ये
मध्यस्थता थई जाय छे. स्वद्रव्यमां लीन रहेवुं ते अस्ति छे ने परद्रव्य प्रत्ये मध्यस्थता थवी ते नास्ति छे.
(२३) निश्चयरत्नत्रयनुं खरुं कारण
हुं समस्त परद्रव्यो प्रत्ये अत्यंत मध्यस्थ थाउं छुं–एम कह्युं; त्यां समस्त परद्रव्यमां शुं बाकी रही गयुं?
अहो! देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धा, नवतत्त्वनुं ज्ञान अने पंचमहाव्रतरूप व्यवहाररत्नत्रयनो आश्रय पण अहीं
काढी नांख्यो. व्यवहाररत्नत्रय पण परद्रव्यना अवलंबने छे, माटे ते प्रत्ये पण हुं मध्यस्थ छुं, एटले ते
व्यवहाररत्नत्रयनुं अवलंबन छोडीने अभेदआत्मानो ज आश्रय करुं छुं. शास्त्रमां व्यवहाररत्नत्रयने
निश्चयरत्नत्रयनुं कारण कह्युं होय ते वात उपचारनी छे; अहीं व्यवहाररत्नत्रयने हेय कहीने तेनो आश्रय
छोडाव्यो छे; केम के खरेखर व्यवहाररत्नत्रय ते निश्चयरत्नत्रयनुं कारण नथी पण स्वद्रव्यानुसार परिणति ते
ज निश्चय रत्नत्रयनुं (शुद्धोपयोगनुं) कारण छे. व्यवहाररत्नत्रय ते शुभोपयोगरूप छे ने निश्चयरत्नत्रय ते
शुद्धोपयोग रूप छे.
(२४) ज्ञानी केवो अभ्यास करे?
श्री आचार्यदेव कहे छे के शुद्धउपयोगने सिद्ध करवा माटे हुं सर्व परद्रव्योमां मध्यस्थ थईने ज्ञान–स्वरूप
मारा आत्माने ज ध्यावुं छुं. जुओ, आ ज ज्ञानीनुं कार्य छे ने आ ज ज्ञानीनो अभ्यास छे. ज्ञानी
पंचमहाव्रतादि शुभरागमां रहेवानो अभ्यास नथी करता पण शुद्धोपयोगमां रहेवानो अभ्यास करे छे. अज्ञानी
जीव परद्रव्यमां राग–द्वेष करीने अशुद्धतारूपे ज थाय छे, ए सिवाय परद्रव्यनुं तो ते पण कांई करी शकतो नथी.
अज्ञानीने स्व–परना जुदापणानुं भान पण नथी एटले तेने तो सदा य परद्रव्यानुसार परिणतिथी
अशुद्धोपयोग ज थाय छे. ज्ञानी स्व–परनी भिन्नतानुं भान करीने, स्वद्रव्यानुसार परिणतिथी शुद्धोपयोगमां ज
रहेवानी भावना करे छे.
(२५) चारित्रदशा प्रगट्या पहेलांंनुं कर्तव्य
हे भाई! चारित्र दशा पहेलांं वस्तुनी साची श्रद्धा अने साचुं ज्ञान तो करो. साचा श्रद्धा–ज्ञान वगरना
व्रत–तप अने चारित्र ते बधा रणमां पोक समान छे, तेनाथी आत्मानुं भवभ्रमण मटे तेम नथी. मारा द्रव्य–
स्वभावमां हुं शांतिनो सागर छुं, मारी सिद्धदशा मारामां पडी छे–आवा मारा द्रव्यने हुं ध्यावुं छुं,