Atmadharma magazine - Ank 094
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण: २४७७ : २०३ :
शुद्ध उपयोग ते धर्म
[वीर सं. २४७प ना फागण सुद चोथना रोज श्री प्रवचनसार गा. १प९ उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन]
(१८) शुद्धोपयोग ते धर्म
आत्मानुं स्वरूप स्वतंत्र अने शुद्ध होवा छतां अनादिथी परद्रव्यना संबंधे पोते शुभ–अशुभभाव करे
छे, तेथी तेने कर्मनुं बंधन थाय छे. ते शुभ–अशुभभाव आत्माने धर्मनुं कारण नथी. आत्मा पोताना
जाणनार–देखनार स्वभावनो आश्रय करे तो शुद्धोपयोग थाय छे, ते धर्म छे.
(१९) स्वयंसिद्ध वस्तु
आ आत्मा देहथी भिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु छे; कोई ईश्वरे तेने बनाव्यो नथी. ईश्वर तो शुद्ध आत्मा छे
ते कोईनुं कांई करता नथी. वळी कर्ता कोई वस्तुने तद्न नवी बनावी शके नहि. स्वयंसिद्ध नित्य वस्तुनो कर्ता
कोई होई शके नहि. जो वस्तुनो कर्ता कहो तो ते वस्तु अनित्य ठरे छे, केम के करायेली चीज अनित्य होय छे,
त्रिकाळी वस्तुने करी शकाती नथी. कार्य त्रिकाळी वस्तु नथी, पण वस्तुनी अवस्था छे. दरेक समये पदार्थनी नवी
नवी अवस्था थाय छे, तेनो कर्ता ते पदार्थ पोते छे. आत्मा अनादिअनंत पदार्थ छे ने पोतानी शुद्ध के अशुद्ध
अवस्थाने पोते ज कर्ता छे.
(२०) स्वद्रव्यानुसार परिणति ते धर्म,
परद्रव्यानुसार परिणति ते विकार
आत्मा अनादि–अनंत ज्ञाननो निधि छे, तेवा आत्माने पुण्यपाप जेटलो मानवो ते अज्ञान छे. जे
पुण्यपापभाव थाय छे ते अशुद्ध भाव छे, ते आत्मानुं खरुं स्वरूप नथी. आत्मा तो चैतन्यशक्तिथी अखंडित
प्रतापवाळो छे, ते आत्मानो आश्रय करे तो शुद्धभाव थाय छे.
अहीं आचार्यदेव कहे छे के आत्मामां अशुद्धोपयोग थाय छे ते खरेखर परद्रव्यने अनुसार परिणतिने
आधीन थवाथी ज थाय छे, कर्म वगेरे निमित्तने कारणे अशुद्धोपयोग कहेवो ते उपचार मात्र छे. जड कर्मनो
कोई वार तीव्र उदय होय छे ने कोई वार मंद उदय होय छे, ते वखते आत्मा पोताना स्वभावने न अनुसरतां
जो कर्मना उदयने अनुसरीने परिणमे तो तेने विकार थाय छे. अने जो पोताना स्वभावने अनुसरीने परिणमे
तो विकार थतो नथी. पोतानी अवस्थामां स्वभावने भूलीने के स्वभावमां अस्थिर थईने परसन्मुख परिणमे
ते अशुद्धोपयोग छे. अज्ञानीने तो स्वभावने भूलीने अशुद्ध उपयोग थाय छे. ने ज्ञानीने स्वभावनी श्रद्धा–
ज्ञान टकावी राखीने अस्थिरताथी अशुद्ध उपयोग थाय छे. ज्यां अंदरमां चैतन्यद्रव्यनुं अवलंबन खस्युं त्यां
परद्रव्यनुं अवलंबन आव्या वगर रहेतुं नथी. पुण्य–पापना भाव परद्रव्यना अवलंबने थाय छे अने धर्म
आत्मस्वभावना आश्रये थाय छे.
देव–गुरु–शास्त्र वगेरे परद्रव्य छे, तेना आश्रये आत्मामां धर्म थतो नथी पण रागनी उत्पत्ति थाय छे.
अने परद्रव्यना आश्रये जे राग थाय ते रागना अवलंबने पण धर्मनी उत्पत्ति थती नथी. तथा आत्मानी
वर्तमान अवस्थानुं अवलंबन करीने अटके तोपण विकारनी ज उत्पत्ति थाय छे. जो आत्माना अखंड ज्ञान–
स्वभावने ओळखीने तेनुं अवलंबन करे तो तेना आश्रये ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळ दशा प्रगटे
छे, ते मुक्तिनुं कारण छे. आत्माना अंर्तस्वभावना अवलंबन सिवाय बीजा कोईनुं पण अवलंबन ल्ये तो ते
परद्रव्यानुसार परिणति छे. अने तेनाथी शुभ–अशुभ भावनी उत्पत्ति थाय छे ते बंधननुं कारण छे. अहो,
स्वद्रव्यानुसार परिणति ते धर्म ने परद्रव्यानुसार परिणति ते विकार, आम समजे तो स्व–परनुं भेदज्ञान थया
विना रहे नहि अने ते जीव परद्रव्यानुसार परिणतिने छोडीने स्वद्रव्य तरफ वळ्‌या वगर रहे नहि.
देह–मन–वाणीनी क्रिया तो आत्मा व्यवहारथी पण करी शकतो नथी, केम के ते तो आत्माथी भिन्न पदार्थ
छे. परना अवलंबने जे पुण्य–पाप थाय छे तेनो कर्ता आत्मा व्यवहारथी छे, परमार्थस्वभावनी द्रष्टिथी तो