सुपात्र शिष्यने आचार्यदेव आ परिशिष्टवडे समजावे छे, ते शिष्य आत्मस्वरूपने पाम्या वगर रहे ज नहीं.
कर्मनी वात न पूछी पण आत्मानी ज वात पूछी; बीजुं बधुं जाणपणुं तो अनंतवार कर्युं छे पण पोतानो
आत्मा केवो छे ते ज पूर्वे कदी जाण्युं नथी, तेथी शिष्य ते ज समजवा मांगे छे. पुण्य केम थाय अने स्वर्ग केम
मळे–एम शिष्य नथी पूछतो पण आत्मा केवो छे ने तेनी प्राप्ति केम थाय?–एम पूछे छे, ते प्रश्नमां ज तेनी
आत्मा समजवानी पात्रता आवी जाय छे.
पोते अंतर्मुख थईने पोताना आत्माने जाणतां बीजाना आत्मा केवा छे ते पण जणाई जाय छे, केम के जेवो
पोताना आत्मानो स्वभाव छे तेवो ज दरेक आत्मानो स्वभाव छे.
जेने अंतरमांथी ऊग्यो ते आत्मस्वभाव समजीने मोक्ष पाम्या वगर रहे ज नहि. पोते पूर्वे जे कांई सांभळ्युं
अने जाण्युं छे ते बधा जाणपणा उपर मींडा वाळीने, पक्षपात छोडी दईने, श्रीगुरु पासे जईने विनयपूर्वक पूछे
छे के हे भगवान! आ मारो आत्मा केवो छे अने पोताने पोतानी प्राप्ति केवी रीते थाय?–आम पूछनारने
परनी–पैसा वगेरेनी के पुण्यनी प्राप्तिनी भावना नथी पण आत्मस्वभावने जाणीने तेनी ज प्राप्तिनी भावना
छे, तेथी जिज्ञासु थईने एकला आत्मानो ज प्रश्न पूछयो छे.
स्वरूप मानीने रखडयो छे. तेने बदले हवे आत्मानुं हित करवानो–आत्माना आनंदनी प्राप्ति करवानो जेने
भाव थयो छे एवो शिष्य आत्मा समजवा माटे प्रश्न पूछे छे. अनादिथी पूर्वे जे कर्युं तेना करतां कांईक नवुं
करवुं छे एवा शिष्यने अंतरनी जिज्ञासाथी प्रश्न ऊठ्यो छे के प्रभो! आ आत्मा कोण छे ने तेनी प्राप्ति केम
थाय छे? एवा शिष्यने समजाववा माटे आ परिशिष्ट द्वारा ते वात फरीने पण कहेवामां आवे छे.
छुं’ एवो जिज्ञासानो प्रश्न जाग्यो छे तेम ज ‘आत्मा कई रीते पमाय–कई रीते तेनो अनुभव थाय’ एवो प्रश्न
जेने ऊग्यो छे एवा शिष्यने आचार्यदेव फरीथी पण आत्मानुं स्वरूप जणावे छे. पहेलांं ज्ञान अधिकार,
ज्ञेयअधिकार अने चरणानुयोगमां जे वर्णन कर्युं तेमां आत्मा कोण छे अने तेनी प्राप्ति केम थाय ए बंने वात
आवी तो जाय छे, पण अहीं फरीथी बीजी ढबथी आचार्यदेव ते वात समजावे छे.
बंनेनी वात आवी जाय छे. शिष्य पात्र थईने पूछे छे के हे नाथ! मारो आत्मा कोण छे ते जाण्या विना