Atmadharma magazine - Ank 094
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २२२ : : आत्मधर्म : ९४
एक होय ने बीजा न होय एम न बने, ज्यां एक धर्म होय त्यां बीजा बधा धर्मो पण साथे ज रहेला छे. तेम
आत्मामां ज्ञानादि अनंत धर्मो छे, तेमांथी कोई एक धर्म मुख्य करीने कह्यो त्यां वस्तुमां बीजा अनंत धर्मो पण
भेगा ज छे; तेने जाणे ते ज्ञान प्रमाण छे.
आत्मामां अनंत धर्मो छे, आत्मा अनंत धर्मोवाळुं एक स्वतंत्र द्रव्य छे, तेने जाणनारुं श्रुतज्ञान
अनंतनयोना समूहरूप छे; एवा श्रुतज्ञानप्रमाणथी स्वानुभववडे आत्मा जणाय छे. केवळी भगवानने तो
आत्मा पूर्ण प्रत्यक्ष जणाय छे, तेमने माटे आ वर्णन नथी; अहीं तो साधकजीवने माटे वर्णन छे, तेथी श्रुतज्ञान
अने नयथी वर्णन कर्युं छे. साधकजीव श्रुतज्ञानप्रमाणथी आत्माने जाणे छे, ते श्रुतज्ञान अनंतनयोवाळुं छे,
तेमांथी दरेक नय आत्माना एकेक धर्मने जाणे छे.
अहीं, द्रव्यनयथी आत्मा केवो छे ते वात चाले छे. द्रव्यधर्मथी एटले के सद्रश एकरूप चिन्मात्रस्वभावथी
आत्माने लक्षनां ल्ये तेनुं नाम द्रव्यनय छे. आत्माना अनंत धर्मोमां एक एवो धर्म छे के आत्मा एकरूप सद्रश
छे. ते धर्मने द्रव्यनय जाणे छे. वस्तुमां जे धर्म होय तेनुं ज ज्ञान थाय. वस्तुमां धर्म न होय तो तेनुं ज्ञान पण
क्यांथी थाय? आत्मामां केवा केवा धर्मो छे ते अहीं वर्णवे छे. चिन्मात्रपणे कायम सद्रशरूप टकवुं एवो
आत्मानो पोतानो स्वभाव छे, एटले आत्मा कोई परना आधारे टकेलो नथी, कोई ईश्वर तेनो टकावनार
नथी, पण पोते पोताना चिन्मात्रस्वभावथी टकेलो छे, एवो तेनो एक धर्म छे. एकेक धर्ममां ज आखो आत्मा
समाई जतो नथी पण अनंत धर्मोनो एकरूप पिंड आत्मा छे; तेम ज एकेक नयमां आखी वस्तुनुं ज्ञान आवी
ज थतुं नथी पण बधा नयो भेगा थईने आखी वस्तुनुं प्रमाणज्ञान थाय छे. आत्माना अनंतधर्मोमां
चैतन्यमात्रपणुं ते एक धर्म छे, ते धर्मथी चैतन्यमात्र आत्माने जाणे ते द्रव्यनय छे.
जे धर्मने जे नय जाणे, ते धर्मनो ते नयमां आरोप थाय छे, एटले द्रव्यधर्मने जाणे ते नयने द्रव्यनय
जुओ! जगतमां आत्मा छे ने ते एकेक आत्मामां अनंत धर्मो छे–आवुं वस्तुस्वरूप जे कहेता होय ते ज
देव–गुरु–शास्त्र साचा छे. जगतमां भिन्न भिन्न अनंत आत्मा, अने दरेक आत्मामां अनंत धर्म–एने जे
कबूलता न होय ते कोई देव–गुरु के शास्त्र साचां नथी; एवा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने जे माने तेने तो हजी
व्ययहारश्रद्धानुं पण ठेकाणुं नथी, ते तो धर्मथी घणो दूर छे. वस्तुनुं स्वरूप जे रीते छे ते रीते ज्ञानमां आव्या
विना ज्ञान ठरे नहि ने ज्ञान ठर्या विना विकल्प तूटे नहि एटले के चित्तनो निरोध थाय नहि. वस्तुस्वरूपने
जेम छे तेम जाणीने ज्यां ज्ञान तेमां एकाग्र थाय त्यां राग के विकल्पनी उत्पत्ति ज थती नथी एनुं नाम ज
चित्तनो निरोध छे. आ सिवाय ‘हुं चित्तने रोकुं, हुं विकल्पने रोकुं’ एम नास्तिना लक्षे कांई विकल्प तूटतो नथी
पण विकल्प उत्पन्न थाय छे. ‘हुं चैतन्यमात्र स्वभाव छुं’ एम अस्तिस्वभाव तरफ ज्ञाननुं जोर आपतां
चित्तनो निरोध सहेजे थई जाय छे, स्वभावनी एकाग्रताना जोरे रागनो अभाव थई जाय छे. माटे पहेलांं
वस्तुना स्वभावने बधा पडखेथी जेम छे तेम जाणवो जोईए. तेनुं आ वर्णन चाले छे.
अहीं जे द्रव्यनय कह्यो तेनो विषय तो एक ज धर्म छे अने समयसारादिमां द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक
एवा बे ज मुख्यनयो लीधा छे तेमां जे द्रव्यार्थिकनय छे तेनो विषय तो अभेदद्रव्य छे; अहीं कहेलो द्रव्यनय तो
वस्तुमां भेद पाडीने तेना एक धर्मने लक्षमां ल्ये छे ने द्रव्यार्थिकनय तो भेद पाड्या वगर, वर्तमान पर्यायने
गौण करीने अभेद द्रव्यने लक्षमां ल्ये छे.––