Atmadharma magazine - Ank 095
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २३४ : आत्मधर्म : ९५
सर्वज्ञना शासन सिवाय बीजे क्यांय आवा वस्तुधर्मोनुं वर्णन होई शके नहि.
जेम जगतमां ‘ससलाना शींगडा’ छे ज नहि एटले ‘ससलाना शींगडा मने लाग्या’ एवुं ज्ञान पण
कोईने थतुं नथी; तेम जगतमां जो अजीव वगेरे पर पदार्थो पण सर्वथा अभावरूप ज माने तो तेने ‘परथी
मारुं नास्तित्व छे’ एम समजवानुं पण रहेतुं नथी एटले के पर तरफनुं वलण छोडीने पोताना स्वभाव तरफ
वळवानुं तेने बनतुं नथी. आ रीते परनो सर्वथा अभाव मानतां पोतानो ‘अभावधर्म’ ज सिद्ध थतो नथी,
एटले आत्मवस्तुनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी.
आ जगतमां आत्मा सिवायनी परवस्तु जो न होय तो आत्माने भ्रांति केम थाय? एकला स्वभावमां
भ्रांति न होय. जो एकला स्वभावमां पण भ्रांति होय तो तो ते भ्रांति पण स्वभावरूप थई जाय एटले ते टळे
ज नहि. माटे, भ्रांतिना निमित्तरूप परवस्तु छे तेना अस्तित्वने जे न माने तेने कदी भ्रांति टळी शकती नथी.
तेमज, ते भ्रांति जो पर वस्तुने लीधे थती होय तो, परवस्तुओ जगतमां सदाय होवाथी ते भ्रांति पण
सदाय थया ज करे! आत्मानी सन्मुख थतां ते भ्रांति छेदाई जाय छे; एटले नक्की थयुं के ते भ्रांति परना लक्षे
छे पण परना लीधे नथी. जे परवस्तुने ज न माने तेने तो भ्रांति टाळवानुं न बने अने जे पर वस्तुने लीधे
भ्रांति माने तेने य भ्रांति टळी न शके.
जगतमां हुं स्व छुं ते पर पण छे, तेमां स्वपरनी एकत्वबुद्धिने लीधे ज भ्रांति छे. ते भ्रांति छेदवा माटे
स्व–परनी एकत्वबुद्धि छेदवी जोईए तेने बदले अज्ञानीओ पर वस्तुना अस्तित्वनो ज सर्वथा निषेध करी
नांखे छे ते स्थूळ मिथ्यात्व छे. हुं स्वपणे छुं तेम ज पर परपणे छे, परथी मारुं नास्तित्व छे एम समजीने स्व–
परनुं भेदज्ञान करतां भ्रांति टळीने सम्यग्ज्ञान प्रगटे छे; ते अपूर्व धर्म छे.
नय भले वस्तुना धर्मोने मुख्य–गौण करीने जाणे, पण वस्तुमां तो बधा धर्मो एक साथे ज छे. वस्तुनुं स्वथी
अस्तपणुं जाणे तेमां परथी नास्तिपणानुं ज्ञान भेगुं आवी ज जाय छे. अस्ति नास्ति बंने धर्मो एक साथे ज छे.
ज्ञाननुं अस्तित्व ज्ञेयने लीधे नथी. एकेक आत्मामां ज्ञानधर्म तेम ज ज्ञेय थवानो धर्म छे. तेमां ज्ञेयधर्म
(प्रमेयत्वधर्म) ने लीधे ज्ञानधर्म नथी तेमज ज्ञानने लीधे प्रमेयत्वधर्म नथी. अहो! पोतामां पण एक धर्मने
लीधे बीजो धर्म नथी. तो पछी पोतानो कोई धर्म परने लीधे होय ए वात तो क्यां रही? ज्ञानधर्मपणे ज्ञाननुं
अस्तित्व छे ने प्रमेयत्त्वधर्मपणे ते धर्मनुं नास्तित्व छे. –जो एम न होय तो अनंत धर्मो सिद्ध न थई शके.
वळी, ज्ञान ज्ञानरूपे छे ने परज्ञेयरूपे ते नथी; एटले ज्ञेयने लीधे ज्ञान थाय ए वात रहेती नथी. जो
ज्ञेयने लीधे ज्ञान थतुं होय तो तो केवळज्ञान पराधीन थई जाय... तेम ज ज्ञेयो तो जगतमां सदाय छे एटले
केवळज्ञान पण सदाय होवुं जोईए. तेम तो बनतुं नथी, माटे ज्ञेयने लीधे ज्ञान थतुं नथी. जेमां ज्ञाननुं
नास्तित्व छे तेनाथी ज्ञान केम थाय? जो के जेवा ज्ञेय पदार्थो होय तेवुं ज केवळज्ञानमां जणाय, तो पण ज्ञेयने
लीधे ते ज्ञान थतुं नथी, ज्ञाननो पोतानो तेवो स्वभाव छे.
जेम परने लीधे ज्ञान थतुं नथी तेम परने लीधे ज्ञान अटकतुं ये नथी. ज्ञानावरणीयकर्म ज्ञानने रोके
एम कहेवुं ते निमित्तना उपचारनुं कथन छे; त्यां खरेखर ज्ञान पोताना स्वकाळथी अटक्युं छे एवा अनुपचार
वस्तुस्वरूपने लक्षमां राखीने समजे तो ज उपचार–कथननो आशय समजी शके. यथार्थ वस्तुस्वरूप शुं छे तेना
भान वगर उपचारने ज खरुं स्वरूप मानी ल्ये तो ते वस्तुस्थितिने समजतो नथी.
गोम्मटसार वगेरेमां एम कथन आवे के–
‘ज्ञानावरणीयकर्म ज्ञानने रोके,
दर्शनावरणीयकर्म दर्शनने रोके,
मोहनीयकर्म चारित्र तथा सम्यक्त्वने रोके,
अंतरायकर्म वीर्यने रोके.’
–ए बधा य कथन निमित्तथी कहेवाया छे. सामे ज्यारे कर्मना उदयनो स्वकाळ छे ते ज वखते ते
निमित्तथी जुदो आत्मानो पोतानो स्वकाळ छे के नहि? ज्यारे आत्मा पोते पोताना स्वकाळमां–पोतानी
योग्यताथी–ज्ञानादिना विकासमां अटक्यो छे त्यारे सामे केवा निमित्तनुं अस्तित्व छे ते बताववा माटे
निमित्तथी कथन कर्युं छे. त्यां अज्ञानी पोताना स्वकाळने चूकीने