Atmadharma magazine - Ank 095
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४७७ : २३७ :
नास्तित्व छे; एम स्वभावने द्रष्टिमां लईने तेनी प्रतीति करे त्यारे भेदज्ञान अने सम्यग्दर्शन थयुं कहेवाय.
पर्यायमां अशुद्धतानुं एम समयनुं अस्तित्व जो न होय तो जीवने संसार ज साबित न थाय, ने मोक्ष
पर्याय तो थई नथी, एटले स्वकाळनो अभाव थतां जीवनो ज अभाव थई जाय. जो जीवनुं अस्तित्व माने तो
जीवनो स्वकाळ पण मानशे के नहि? स्वकाळमां पूर्ण शुद्धता तो छे नहि एटले संसारदशा छे. आ प्रमाणे
जीवना स्वकाळने मान्या विना जीवनुं अस्तित्व ज खरेखर मानी न शके. परथी भिन्न अस्तित्व जाण्या पछी,
पोतामां क्षणिक राग जेटलुं त्रिकाळी स्वभावनुं अस्तित्व नथी, त्रिकाळी स्वभाव तो रागरहित छे–एम
ओळखीने, ते स्वभावनी मैत्री करीने परनी मैत्री छोडे तेनुं नाम धर्म छे. परथी मने लाभ–नुकशान थाय एवी
पर साथे एकत्वपणानी मान्यता ते पर साथे मैत्री छे, ते संसारनुं कारण छे, ने स्वभाव साथे मैत्री ते मुक्तिनुं
कारण छे. जेने स्व–परनुं भेदज्ञान नथी तेने अंतरमां स्वभाव अने परभाव वच्चेनुं भेदज्ञान क्यांथी होय?
अने तेना वगर धर्म क्यांथी थाय? आत्माना आ अस्तित्व, नास्तित्व वगेरे धर्मोने समजे तो भेदज्ञान थया
वगर रहे नहि.
आत्मानुं द्रव्य, असंख्यप्रदेशी क्षेत्र ने अनंत गुणोरूप भाव ते तो त्रिकाळ छे, पर्यायो क्रमे करीने त्रणे
काळ थया करे छे, पण ते पर्यायनो काळ एक समय पुरतो छे. विकारी के अविकारी भाव थाय ते तेनो स्वकाळ
छे. ते वखते जगतमां बीजी चीजनुं अस्तित्व छे पण तेनाथी आ आत्माना स्वकाळनुं नास्तित्व छे एटले ते
परथी कांई पण लाभ–नुकशान थतुं नथी. हवे आत्मामां स्वकाळनो आधार तो स्वद्रव्य छे, एटले शुद्ध द्रव्य
उपर द्रष्टि जाय छे. हुं स्वपणे छुं ने परपणे नथी–एम परथी भेदज्ञान करीने, स्वमां पण ‘हुं त्रिकाळ शुद्ध
चिदानंद छुं ने विकार जेटलो नथी’ एम भेदज्ञान करीने शुद्ध स्वभावनो आश्रय करतां अपूर्व धर्म थाय छे.
द्रव्य त्रिकाळ छे ने पर्याय क्षणिक छे–एम जे ओळखे तेनी रुचिनुं जोर त्रिकाळी द्रव्य तरफ वळ्‌या वगर रहे ज
नहीं.
जेम स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाळ ने स्वभाव ए चारे थईने एक अस्तित्व छे, कांई अस्तित्वना जुदा
जुदा चार प्रकार नथी, तेम परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाळ ने परभाव ए चारेयपणे नहि होवारूप एक ज नास्तित्व
धर्म छे, कांई जुदा जुदा चार धर्मो नथी.
स्वद्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी अस्तित्व कह्युं तेमां तो एक पोताना ज द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावनी अपेक्षा
आवी; ने परद्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी नास्तित्व कह्युं तेमां तो पोताना सिवाय बीजा अनंता पदार्थोना द्रव्य–
क्षेत्र–काळ–भाव आवी गया, ते बधायपणे आत्मानुं नास्तित्व छे.
आ आत्मा पोताना स्वद्रव्यथी अस्तिरूप छे ने ते ज आत्मा परद्रव्यनी अपेक्षाए ‘अद्रव्य’ छे. परथी
नास्तित्व छे एम कहो, के परनी अपेक्षाए अद्रव्य छे एम कहो, ते बंने एक ज छे. ते ज प्रमाणे आत्मा
स्वक्षेत्रथी छे ने परक्षेत्रनी अपेक्षाए ते ‘अक्षेत्र’ छे; स्वकाळथी छे ने परकाळनी अपेक्षाए ते ‘अकाळ’ छे;
अने स्व भावथी छे ने परभावनी अपेक्षाए ते ‘अभाव’ छे.
जेम तीर पोतानी अपेक्षाए लोहमय छे अने बीजा तीरना लोढानी अपेक्षाए ते पोते अलोहमय पण
छे; तेम आत्मा पोताना द्रव्यमय छे ने परना द्रव्यमय नथी माटे अद्रव्यमय पण छे. अस्तित्वनयथी जोतां ते
पोताना द्रव्यमय छे ने नास्तित्वनयथी जोतां ते पोते ज अद्रव्यमय छे एटले के परना द्रव्यपणे ते नथी. ए ज
प्रमाणे परनुं क्षेत्र, परनो काळ ने परनो भाव, तेनाथी पण आत्मानुं नास्तित्व छे. पोताना चतुष्टयथी जोतां
आत्मा छे ने परना चतुष्टथी जोतां आत्मा पोते अभावरूप छे. आवा बंने धर्मो दरेक आत्मामां एक साथे
रहेला छे. आ धर्मो परस्पर सापेक्ष छे एटले कोई एक धर्मने मुख्य करीने जाणती वखते ज तेनी साथे बीजा
अनंत धर्मोनी अपेक्षा भेगी ज छे.
अज्ञानीने एम लागे छे के जे तीर लोहमय छे ते ज अलोहमय कई रीते होय? जे आत्मा ‘छे’ ते ज
आत्मा ‘नथी’ एम कई रीते होय? पण भाई! तुं स्याद्वादथी समज. स्याद्वादमां अपेक्षा क्यां फरे छे ते
जाण्या वगर वस्तुनुं स्वरूप नहि समजाय. तीरने लोहमय कह्युं ते पोतानी अपेक्षाए छे ने तेने ज अलोहमय
कह्युं ते परनी अपेक्षाए छे, जगतमां बीजा जे लोहमय तीरो छे तेनी अपेक्षाए पहेलुं तीर अलोहमय छे. ए
रीते जुदी जुदी अपेक्षाए बंने धर्मो तेनामां सिद्ध थाय छे. तेम जे आत्मा स्वचतुष्टयथी छे ते ज आत्मा
परचतुष्टयथी नथी, एम बंने धर्मो