Atmadharma magazine - Ank 095
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २३८ : आत्मधर्म : ९५
तेनामां सिद्ध थाय छे. आवुं अनेकान्त वस्तुस्वरूप छे.
मारो आत्मा मारा द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावपणे छे ने मारा सिवायना समस्त पदार्थोना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–
भावपणे हुं अद्रव्यमय–अक्षेत्रमय–अकाळमय ने अभावमय छुं–आवो नास्तित्वधर्म छे; तेने जे समजे ते जीव
परमाथी मने सुख मळे एम न माने, पर मने अनुकूळ होय तो ठीक ने पर मने प्रतिकूळ होय तो अठीक–एवो
मिथ्याभाव तेने न थाय. परथी मने सुख थाय एवो मिथ्याभाव पोते दुःखरूप छे; परमांथी सुख तो आवतुं ज
नथी. ‘परथी मने सुख थाय’ एम अज्ञानीए मान्युं भले, पण त्यां तेने परमांथी सुख थवानो तो अभाव ज
छे; तेनी पर्यायमां ते मिथ्या मान्यतानो भाव अस्तिरूप छे ने ते मिथ्याभावनुं आत्माने दुःख थाय छे. ते
दुःखरूप भाव आत्मानी पर्यायमां एक समय पूरतो थाय छे, पण त्रिकाळी भावमां तो तेनो पण अभाव छे.
आम, नास्तित्वनयथी आत्माने परना अभावरूप जाणतां ज्ञान स्वमां वळे छे. आत्मा परथी तो तद्न
अभावरूप छे एटले परथी जरा पण लाभ–नुकशान तेने नथी. आम नक्की करे तेने पर प्रत्ये तीव्र राग–द्वेष तो
थता नथी; अल्प राग–द्वेष थाय ते पण परने लीधे थता नथी. राग ते पोतानो स्वकाळ छे, स्वकाळनो
परकाळमां अभाव छे, एटले राग ते पोतानो स्वकाळ छे एम नक्की करनारने स्वमां वळवानुं रह्युं. स्व
पर्यायमां विकार छे ते त्रिकाळी द्रव्यमां नथी–एम जेणे जाण्युं तेना ज्ञाननुं बळ त्रिकाळी स्वभाव तरफ वळ्‌या
वगर रहे नहि. ए रीते, स्वभाव तरफ वळवुं ते ज नयनुं तात्पर्य छे. नय भले गमे ते धर्मने मुख्य करीने
जाणे–शुद्धताने जाणे के रागने जाणे, पण तेनुं परमार्थ तात्पर्य–छेल्लो सरवाळो तो शुद्ध चैतन्यद्रव्य तरफ ढळवुं
ते ज छे.
परनी अपेक्षाए आत्मानो अभाव छे ने आत्मामां परनो अभाव छे; माटे परने लीधे आत्मानुं ज्ञान
खीले के परथी आत्मानी बुद्धि बगडे–एम नथी. निर्दोष सादो आहार करे तो तेने लीधे निर्दोष भाव रहे अने
रसवाळो सदोष आहार करे तो तेने लीधे बुद्धि बगडी जाय–एम नथी. आ बधी वात नास्तित्वधर्ममां आवी
जाय छे.
अस्ति–नास्ति स्वभाव बराबर समजे तो बधाय गोटा नीकळी जाय तेवुं छे. सिद्धनो आत्मा के
निगोदनो आत्मा, कोई पण आत्मा नरथी नथी. सिद्ध भगवानना आत्मानो स्वकाळ ज एवो छे के अलोकमां
ते न जाय, लोकमां ज रहेवानो तेनो स्वकाळ छे, निमित्त नथी माटे ते अलोकमां नथी जई शकता–एम नथी. ए
ज प्रमाणे निगोदनो जीव निगोददशामां रह्यो छे ते पण तेना पोताना अस्तित्वनो स्वकाळ छे, तेमां कर्मनी
नास्ति छे, अने कर्मना अस्तित्वमां आत्मानुं नास्तित्व छे, माटे कर्मने लीधे ते जीव निगोदमां रह्यो छे–एम
नथी. जो कर्मना जोरने लीधे ते जीवने निगोदमां रहेवुं पडे छे एम कोई माने तो त्यां कर्मना अस्तित्वने लीधे
आत्माना स्वकाळनुं अस्तित्व थई जाय छे एटले जीवनुं स्वतंत्र अस्तित्व रहेतुं नथी, तेम ज जीवनो
नास्तित्वधर्म पण रहेतो नथी. जीव तो कर्मना अभावरूप छे तो कर्म तेने शुं करे?
अहो! परपणे मारो अभाव छे एटले परमां मारी शांतिनो पण अभाव छे. माटे मारी शांति मारे
मारामां ज शोधवानी रही. –आम नक्की करनार स्व तरफ वळीने शांतिनो अनुभव करे छे. आत्माना पोताना
अंतरना स्वभावमां ज शांति छे ने अशांति पण पोतानी पर्यायमां ज छे. आत्माने शांति के अशांति परने
कारणे नथी. शरीर अने आत्मा वच्चे नास्तित्व होवाथी तेने अनंता जोजननुं आंतरुं छे, आकाशना क्षेत्र
अपेक्षाए भले अंतर न होय पण भावथी तो तेने अनंता जोजननुं अंतर छे; एटले आ देहनी साथे आत्मानी
शांति–अशांतिनो संबंध नथी. आत्मा तो पोताना नास्तित्वधर्मना बळे देहातीत... वचनातीत... कर्मातीत छे,
अने पर्यायमां जे क्षणिक विकार छे ते त्रिकाळी स्वभावमां नथी एटले ते स्वभाव तो विकारथी पण अतीत छे;
आत्माना अस्ति–नास्ति स्वभावने समजतां आ प्रमाणे भेदज्ञान थाय छे. –आवुं आ लोकोत्तर वीतरागी
विज्ञान छे. आ विज्ञान समजे तेने पर साथेनी एकत्वबुद्धि तूटीने अंर्तस्वभावमां एकत्वबुद्धि थाय ने
अल्पकाळमां ज तेनी मुक्ति थई जाय.
[अहीं नास्तित्वधर्मनुं वर्णन पूरुं थयुं. –४]
(अपूर्ण)