Atmadharma magazine - Ank 095
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २४० : आत्मधर्म : ९५
जेम लींडीपीपरना स्वभावमां ६४ पहोरी तीखाश शक्तिरूपे रहेली छे, तेमांथी ते प्रगटे छे. तेनी ६४
पहोरी शक्तिनो विश्वास कर्या पछी तेने घसीने ते तीखाश प्रगट करवानो विकल्प आवे छे, कांकराने घसवानो
विकल्प नथी आवतो केम के कांकरामां तीखाश प्रगटवानो स्वभाव नथी एम जाण्युं छे. जेनामां जे स्वभाव
होय तेमांथी ज ते प्रगटे छे, संयोगमांथी आवतो नथी. तेम आत्मामां ज्ञायक स्वभाव छे ते ६४ पहोरी
तीखाशनी जेम पूर्ण छे. ते पूर्ण ज्ञानस्वभावने नक्की करीने तेमां एकाग्रतारूपी घसारो करतां पूर्ण केवळज्ञान
प्रगटे छे. ज्यां ज्ञानस्वभाव भर्यो छे तेमांथी ज्ञान प्रगटे छे. कोई संयोगमांथी ज्ञान आवतुं नथी. शरीरादि
अचेतन छे तेमांथी ज्ञान आवतुं नथी. हुं परनो तो कर्ता नथी ने नवतत्त्वना विकल्पनो पण हुं कर्ता नथी, हुं
पूर्ण ज्ञायक छुं–एम पोताना अंर्तस्वभावने नक्की करीने तेमां एकाग्र थवुं ते धर्म छे.
आत्माना अंर्तस्वभावनी द्रष्टि करतां तेमां एक ज्ञायकमूर्ति जीव ज भूतार्थपणे प्रकाशमान छे, नव–
तत्त्वोना विकल्प तेमां नथी. साधकने भले नवतत्त्वना विकल्प हो, पण तेनी द्रष्टि तो अभेद स्वभावमां ज छे.
ते अभेद स्वभावनी ज मुख्यतामां तेने ज्ञाननी निर्मळता थती जाय छे ने राग–द्वेष टळता जाय छे; विकल्प
थवा छतां अभेदस्वभावनी द्रष्टिमां तो ते अभूतार्थ ज छे. आ रीते शुद्धनयवडे, एकपणे प्रकाशतो शुद्ध आत्मा
अनुभवाय छे, एवा शुद्धात्मानी अनुभूति ते आत्म–प्रसिद्धि छे ने शुद्ध आत्मानी प्रसिद्धि ते नियमथी
सम्यग्दर्शन छे. आ रीते आ सर्व कथन निर्दोष छे, बाधारहित छे.
कोई कहे के ‘सर्वज्ञ भगवानना ज्ञानमां जणायुं हशे त्यारे आत्मानो धर्म थशे, अत्यारे आ बधुं
समजवानुं शुं काम छे? ’ –तो एम कहेनारनी द्रष्टि ऊंधी छे, तेने आत्माना धर्मनी रुचि नथी. ज्ञानी तेने कहे
छे के–अरे भाई! ‘सर्वज्ञभगवाने बधुं जोयुं छे अने तेम ज बधुं थाय छे’ एवो सर्वज्ञना ज्ञाननो अने वस्तुना
स्वभावनो निर्णय कोणे कर्यो? कया ज्ञानमां ते निर्णय कर्यो? जे ज्ञान सर्वज्ञतानो अने वस्तुना स्वरूपनो
निर्णय करे ते ज्ञान आत्मस्वभाव तरफ वळ्‌या वगर रहे ज नहि ने तेने वर्तमानमां ज धर्मनी शरूआत थई
जाय, अने सर्वज्ञभगवानना ज्ञानमां पण एम ज जणायुं होय. जेणे आत्माना पूर्ण ज्ञान–सामर्थ्यने प्रतीतमां
लईने तेमां एकता करी तेने ज खरेखर सर्वज्ञना ज्ञाननी प्रतीत थई छे. जे रागने पोतानुं स्वरूप मानीने
रागनो कर्ता थाय छे, ने रागरहित ज्ञानस्वभावनी जेने श्रद्धा नथी तेने सर्वज्ञनी पण खरी मान्यता नथी;
एटले सर्वज्ञना निर्णयमां ज ज्ञानस्वभावना निर्णयनो सम्यक्पुरुषार्थ आवी जाय छे, ते ज मोक्षसन्मुखनो
पुरुषार्थ छे, ने ते ज धर्म छे. लोकोने बहारनी धमाधम देखाय तेमां पुरुषार्थ लागे छे पण अंतरमां
ज्ञानस्वभावना निर्णयमां ज ज्ञाताद्रष्टापणानो सम्यक्पुरुषार्थ आवी जाय छे, तेने बर्हिद्रष्टि लोको जाणता
नथी. खरेखर ज्ञायकपणुं ए ज आत्मानो पुरुषार्थ छे, ज्ञायकपणाथी जुदो बीजो कोई सम्यक्पुरुषार्थ नथी.
जाणनार जीव छे–ज्ञायकभाव आत्मा छे, एवो सम्यक् निर्णय कर्यो ते ज आत्मानी अंर्तक्रिया छे, ते ज
धार्मिकक्रिया छे; पण बहारनी देहद्रष्टिथी जोनारने ते वात ख्यालमां आवती नथी. अवस्थानुं पलटवुं ते क्रिया
छे. ‘हुं ज्ञायकस्वभाव छुं’ एम स्वभावमां द्रष्टि करीने पलटवुं ते धर्मनी क्रिया छे, ने ‘हुं विकारी छुं’ एवी
विकारी द्रष्टि करीने पलटवुं ते अधर्मनी क्रिया छे.
शुद्धनयवडे अंर्तद्रष्टिथी जोतां आत्मा एक ज्ञायकभावपणे प्रकाशमान भूतार्थ अनुभवाय छे. श्री
आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! तुं अंतरमां तो जो, त्यां छलोछल ज्ञानस्वभाव भर्यो छे. ज्यां सरोवरमां
पाणी भर्युं होय त्यां ते ऊछळे, तेम अंतरना चैतन्यसरोवरमां परिपूर्ण ज्ञान भर्युं छे, तेमां डुबकी मार तो
पर्यायमां ज्ञान ऊछळशे. क्यांय पर सामे जोवाथी के भेदना विचारथी तारा गुणो प्रगटशे नहि, माटे ते छोडीने
अंतरना परिपूर्ण स्वभाव सामे द्रष्टि कर अने तेमां ज एकाग्र थईने अनुभव कर.
जे नवतत्त्वोने न ओळखे तेने तो अनुभवमां आत्मानी प्रसिद्धि थाय नहि; ने नवतत्त्वने जेम छे तेम
जाणीने मात्र नवतत्त्वना विकल्पमां ज रोकाय तो तेने पण नवतत्त्वनी ज प्रसिद्धि छे पण भगवान आत्मानी
प्रसिद्धि नथी एटले के सम्यग्दर्शन नथी. नवतत्त्वना भेदनी द्रष्टि छोडीने चैतन्य ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी
अनुभव करतां भगवान आत्मानी प्रसिद्धि थाय छे, ते सम्यग्दर्शन