Atmadharma magazine - Ank 095
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४७७ : २४१ :
छे ने त्यांथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे. अहीं ‘आत्मानी प्रसिद्धि’ थवानुं कह्युं एटले शुं? त्रिकाळी
आत्मस्वभाव तो प्रसिद्ध ज हतो, ते कांई ढंकायो नथी, पण अवस्थामां पहेलांं तेनुं भान न हतुं ने हवे तेनुं
भान थतां अवस्थामां भगवान आत्मानी प्रसिद्धि थई. निर्मळ अवस्था प्रगट थतां, द्रव्य–पर्यायनी अभेदताथी
‘आत्मा ज प्रसिद्ध थयो’ एम कह्युं छे. अनुभवमां कांई द्रव्य–पर्यायना भेद नथी. रागमिश्रित विचार छूटीने
ज्ञान ज्ञानमां ज एकाग्र थयुं तेनुं नाम आत्मख्याति छे. ते आत्मख्यातिने अहीं सम्यग्दर्शन कह्युं छे. जो के
आत्मख्याति पोते तो ज्ञाननी पर्याय छे पण तेनी साथे सम्यग्दर्शन अविनाभावीपणे होय छे तेथी ते
आत्मख्यातिने ज अहीं सम्यग्दर्शन कह्युं छे.
ए रीते, नवतत्त्वोमां भूतार्थपणे प्रकाशमान एक आत्माने जाणवो ते ज नियमथी सम्यग्दर्शन छे, एम
सिद्ध करीने श्री आचार्यदेव निःशंकतापूर्वक कहे छे के आ सर्व कथन निर्दोष छे, आवुं ज वस्तुस्वरूप छे ने आवी
ज सम्यग्दर्शननी रीत छे. आ सिवाय बीजी कोई रीत नथी. आ सिवाय बीजुं माने तो ते बाधा–सहित छे.
नवतत्त्वने बराबर न जाणे तो ते मिथ्यात्वरूप दोषसहित छे, तेम ज नवतत्त्वना भेदना विकल्पमां ज रोकाई
रहे ने एकरूप ज्ञायकस्वभावनी प्रतीत न करे तो ते पण मिथ्यात्वरूप दोषसहित छे. नवतत्त्वने जाण्या पछी
ज्ञायकस्वभावनी एकतामां ज्ञान वळे ते ज निर्दोष सम्यग्दर्शन छे, ते ज निर्दोष उपाय छे. अहीं तो आत्मार्थी
जीव नवतत्त्वने जाणीने अंतरना अनुभवमां वळे ज–एवी ज वात छे, नवतत्त्वमां अटकीने पाछो फरे–एवी
वात ज नथी.
नवतत्त्वने जाणनार कोण छे? नवतत्त्वने जाणनार तो ज्ञाननी अवस्था छे. कांई ईन्द्रियो के राग
नवतत्त्वने जाणवानुं काम नथी करता. पण ज्ञाननी अवस्था ज तेने जाणवानुं काम करे छे. हवे जो, ज्ञाननी जे
अवस्था छे ते अवस्थाए अंर्तमुख थईने ज्ञानस्वभावमां एकतानुं काम न कर्युं ने बर्हिमुख रहीने भेदना
लक्षे विकल्पमां एकता करीने ते अटकी, तो ते ज्ञानअवस्थामां धर्म नथी; केम के ते ज्ञानपर्याये स्वमां वळीने
स्वभावनुं काम न कर्युं पण परलक्षे रागमां ज अटकीने संसारभावनी उत्पत्ति करी. माटे ज्ञाननी अवस्थामां
नवतत्त्वना भेदनुं पण लक्ष छोडीने, अभेद आत्मानी द्रष्टि करीने ज्ञायकनो अनुभव करवो ते ज सम्यग्दर्शननो
उपाय छे. पहेलांं तो नवतत्त्वथी चैतन्यनुं अनुमान करतां पण जेने न आवडे ते विकल्प तोडीने अंतरमां
चैतन्यनो साक्षात् अनुभव कई रीते करी शके? पहेलांं नवतत्त्वना ज्ञान द्वारा चैतन्यस्वभावने बुद्धिमां पकडे
पछी ते स्वभावना निर्णयने घूंटता घूंटता विकल्प तूटीने अंतरमां एकाग्रता थाय छे. ज्ञायकस्वभाव तरफ
ढळतां एकला ज्ञायकनो रागरहित अनुभव करवो ते धर्मनी निर्दोष क्रिया छे.
हे भाई, प्रथम जो तने सर्वज्ञनो निर्णय न होय तो तारा ज्ञानमां सर्वज्ञनो निर्णय कर. तारा ज्ञानमां
सर्वज्ञनो निर्णय कर्यो तो ते ज्ञानमां आत्माना परिपूर्ण ज्ञातास्वभावनो निर्णय आवी जाय छे. सर्वज्ञनो निर्णय
करतां पोताना ज्ञातास्वभावनी प्रतीत थई अने पर्याय ज्ञानशक्ति तरफ वळीने एकाग्र थवा मांडी ते ज साचो
पुरुषार्थ छे; भले ते जीवने पर्यायमां ज्ञाननी अधूराश होय ने राग थतो होय पण ते जीव रागनो कर्ता थतो
नथी, ते तो रागनो पण ज्ञायक ज रहे छे. अने अल्पज्ञताने ते पोतानुं स्वरूप नथी मानतो, पर्यायमां
अल्पज्ञता होवा छतां तेनी द्रष्टि तो परिपूर्ण ज्ञानमूर्ति स्वभावमां ज छे. –आवो जीव साधक छे. सर्वज्ञने पूरुं
ज्ञान छे ने आ साधक सम्यग्द्रष्टिने अधूरुं ज्ञान छे, –एटलो फेर छे, परंतु ए साधक जीव पण ज्ञानस्वभावनी
एकतानी द्रष्टिमां रागनो कर्ता नथी पण ज्ञायक ज छे. आम, ज्ञायक–स्वभावनो निर्णय करवो तेनुं नाम धर्म छे,
अने ए ज दरेक आत्मार्थी–मोक्षार्थी जीवनुं पहेलुं कर्तव्य छे.
–ए रीते श्री आचार्यदेवे आ तेरमी गाथामां सम्यग्दर्शननुं वर्णन कर्युं.