: २२८ : आत्मधर्म : ९५
छे तेम आत्मा अनंत गुण–पर्यायनो पिंड चैतन्यमय छे ते तेनुं स्वद्रव्य छे.
२. स्वक्षेत्र: जेम दोरी अने कामठानी वचमां रहेलुं छे ते तीरनुं स्वक्षेत्र छे तेम आत्मा पोताना असंख्य
चैतन्यप्रदेशोमां रहेलो छे ते तेनुं स्वक्षेत्र छे.
३. स्वकाळ: जेम बाण छूटवानी तैयारीमां एटले के खेंचायेली अवस्थामां छे ते तेनो स्वकाळ छे तेम
आत्मा पोतानी साधक वगेरे वर्तमान अवस्थामां छे ते तेनो स्वकाळ छे.
४. स्वभाव: जेम पोताना निशाननी सन्मुख रहेवारूप भाव ते तीरनो स्वभाव छे तेम ते ते काळनी
पर्यायनी सन्मुख थयेलो आत्मानो जे त्रिकाळी भाव छे ते तेनो स्वभाव छे.
ए रीते, जेम बाण पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ ने भावमां रहेलुं छे तेम आत्मा पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ ने
भावथी अस्तित्ववाळो छे. वस्तुनुं आवुं अस्तित्व पोताथी ज छे, कोई परने लीधे नथी.
बाणनी खेंचायेली अवस्था ते बाणनो पोतानो स्वकाळ छे, माणसना विकल्पने लीधे के हाथने लीधे
बाणनी ते अवस्थानुं अस्तित्व नथी, केम के जो एम होय तो बाणनो पोतानो स्वकाळ रहेतो नथी. तेनो स्वकाळ
तेना पोताना अस्तित्वधर्मथी छे, कोई बीजाने लीधे नथी. तेम आत्मानी सम्यग्दर्शनादि पर्याय ते तेनो पोतानो
स्वकाळ छे, कोई देव–गुरु वगेरे परने लीधे ते स्वकाळनुं अस्तित्व नथी. पोताना वर्तमान वर्तता स्वकाळमां द्रव्य
पोते ज रहेलुं छे, द्रव्यनो ज तेवो अस्तित्वधर्म छे. ए ज प्रमाणे कामठा अने दोरीनी वच्चे, पोतानी लंबाई–
पहोळाईमां तीर रहेलुं छे ते ज तेनुं क्षेत्र छे, आकाशनुं क्षेत्र ते बाणनुं स्वक्षेत्र नथी, ते तो परक्षेत्र छे, तेमां बाण
रहेलुं नथी. तेम आत्मा शरीरनां क्षेत्रमां रहेलो नथी पण पोताना असंख्य आत्मप्रदेशी क्षेत्रमां ज रहेलो छे.
भाई! तुं जो तो खरो के तारुं अस्तित्व क्यांय बहारमां नथी, तारामां ज तारुं अस्तित्व पूरेपूरुं भर्युं छे, सिद्ध
भगवान थवानुं सामर्थ्य पण तारा अस्तित्वमां ज पड्युं छे, ते क्यांय बहारथी आवतुं नथी.
जे ज्ञान आवा स्वअस्तित्वने जाणे तेनुं नाम अस्तित्वनय छे. अहो! एक अस्तित्वधर्म कहेतां तेमां
द्रव्य–क्षेत्र–काळ ने भाव चारेय समाई जाय छे. आत्मानुं अस्तित्व जाणवा माटे तेना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव
जाणवा जोईए. ते आ प्रमाणे छे–
१. चैतन्यमय अनंत गुणनो पिंड ते आत्मानुं स्वद्रव्य छे.
२. शरीरना प्रमाणमां छतां शरीरथी भिन्न, असंख्य प्रदेशी पहोळुं ते आत्मानुं स्वक्षेत्र छे.
३. सम्यग्दर्शन, मुनिपणुं के सिद्धदशा वगेरे एकेक
समयनी वर्तमान वर्तती पर्याय ते आत्मानो स्वकाळ छे. आत्मानो स्वकाळ कह्यो एटले परथी कोई
अवस्था थाय ए वात ज रहेती नथी. निगोदीया जीवनी निगोददशा ते पण तेनो स्वकाळ छे, ते पोताथी छे,
कर्मने लीधे नथी.
४. ते ते समयनी पर्यायमां परिणमता आत्माना ज्ञानादि
भावो त्रिकाळ रहे छे. वर्तमान पर्यायनी सन्मुख थयेलो भाव कायम रहे छे एटले के ज्ञानादि गुणो त्रणे
काळे ते ते काळनी पर्याये परिणमी जाय छे, एवो जे त्रिकाळ टकनारो भाव ते आत्मानो स्वभाव छे.
–आवा स्वद्रव्य–स्वक्षेत्र–स्वकाळ ने स्वभावथी आत्मा अस्तित्वरूप छे. एक अस्तित्वधर्मथी आत्माने
बराबर समजे तो बधा गोटा नीकळी जाय तेवुं छे. अस्तित्वधर्म एम बतावे छे के आत्मा पोताना द्रव्य–क्षेत्र–
काळ भावथी छे, पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावने धरनार आत्मा ज छे. बस खलास! क्यांय पर सामे जोवानी
के परमांथी कांई लेवानी बुद्धि रहेती नथी, पोताना धर्म माटे पोतामां ज जोवानुं रहे छे; आत्माना आवा
अस्तित्व स्वभावने समजे तो ते पोतामां वळ्या वगर रहे नहि ने तेने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगटीने
परमानंदनी प्राप्ति थया विना रहे नहि.
प्रश्न:– आ तो बहु झीणी वात छे एटले समजवी अघरी लागे छे, आना करतां ‘स्वाश्रये मुक्ति ने
पराश्रये बंधन’ एम टूंकामां ज समजावी द्यो ने?
उत्तर:– ‘स्वाश्रये मुक्ति अने पराश्रये बंधन’ ए वात साची पण एमां य भेगी आ वात पण आवी ज
जाय छे. केमके ‘स्वाश्रये मुक्ति’ एम कहेनारे पण स्वनो आश्रय करवा माटे ‘स्व’ कोण छे ते तो जाणवुं पडशे ने!
स्व एटले पोतानो आत्मा कोण छे–केवो छे ते जाण्या विना तेनो आश्रय करशे केवी रीते? पहेलांं जेम