Atmadharma magazine - Ank 095
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २३० : आत्मधर्म : ९५
व्यवहार छे–एम कहेवामां आवे छे. [त्यां अभेद ते निश्चय ने भेद ते व्यवहार एवी शैलि छे.]
ए प्रमाणे ज्यां जे अपेक्षा होय ते समवजी जोईए.
स्वद्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी अस्ति छे ने परथी नास्ति छे–ए वात यथार्थ समजे तो बधा गोटा नीकळी
जाय. आ अस्ति–नास्तिधर्म बधा द्रव्योमां छे, दरेक द्रव्य पोतपोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी अस्तिरूप छे ने
परना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी ते नास्तिरूप छे. अहीं आत्माना अस्तित्व धर्मनी वात चाले छे. दरेक वस्तुमां
अस्ति–नास्ति आदि परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओ छे, ते वस्तुने सिद्ध करे छे; विरोधी शक्ति एवी न होय के
एकबीजानो निषेध करे. जो एक धर्म बीजा धर्मनो निषेध करे तो तो वस्तु ज अनंतधर्मवाळी सिद्ध न थाय.
अस्तिधर्म अने नास्तिधर्म ए बंने परस्पर विरुद्ध होवा छतां वस्तुमां बंने साथे रहेला छे, एटले वस्तु
अनेकांत स्वभाववाळी छे. धर्म अपेक्षाए विरोध होवा छतां एक वस्तुमां साथे रहेवानी अपेक्षाए तेमने
विरोध नथी. धर्मो अनंत भिन्न भिन्न होवा छतां धर्मी वस्तु एक छे, ते अनंतधर्मवाळी वस्तु प्रमाणनो विषय
छे, ने तेनो एकेक धर्म ते नयनो विषय छे.
आत्मा त्रणे काळे पोताथी ज अस्तित्ववाळो छे; तेथी, कोई परवस्तुनी मदद होय तो मारुं अस्तित्व टके
ने मने ठीक पडे–ए वात रहेती नथी. अहो! हुं मारी चैतन्यसत्ताथी ज सदाय टकनारो छुं–एम जो पोताना
अस्तित्वनो निर्णय करे तो केटली निर्भयता थई जाय? जगतनो कोई पण प्रतिकूळ संयोग आवीने मारो नाश
करशे के मने हेरान करशे एवो भय टळी जाय. पोताथी ज आत्मानुं अस्तित्व छे एटले आत्माने बधाय पर
पदार्थो विना ज चाली रह्युं छे. ‘मारे पर विना न चाले’ एवी ऊंधी मान्यता करनार अज्ञानी जीवने पण पर
विना ज त्रणे काळ चाली रह्युं छे. तेनी पर्यायमां तेणे राग विना अनादिथी नथी चलाव्युं छतां द्रव्यस्वभावमां
तो राग नथी, त्रिकाळी तत्त्व तो राग विना ज नभी रह्युं छे. –आम ओळखे तो स्वभावसन्मुख थईने रागथी
जुदो पडी जाय, परथी जुदो तो छे ज. अहीं प्रमाणना विषयभूत आखी वस्तुनुं वर्णन होवाथी रागने पण
आत्मानो धर्म–आत्मानो स्वभाव–कहेशे. पण ते जाणवानुं य फळ तो रागरहित चैतन्य स्वभाव तरफ ढळवुं ते
ज छे. रागरूपे आत्मा परिणमे छे माटे राग पण आत्मानो ज एक धर्म छे. एम जाणनार जीव रागमां
अटकीने ते नथी जाणतो, पण रागनो ज्ञाता रहीने ते जाणे छे. रागने जाणनारुं ज्ञान रागमां एकाकार थईने
नथी जाणतुं पण रागथी जुदुं रहीने जाणे छे.
(१) बधा गुण–पर्यायोनो पिंड ते स्वद्रव्य;
(२) पोताना असंख्य आत्म–प्रदेशो ते स्वक्षेत्र;
(३) पोतानी वर्तमान समयनी अवस्था ते स्वकाळ; अने
(४) ते ते पर्यायनी सन्मुख झुकेलो जे त्रिकाळी शक्तिरूप भाव ते स्वभाव;
–ए प्रमाणे स्वद्रव्य–स्वक्षेत्र–स्वकाळ अने स्वभावथी आत्मा अस्तित्वरूप छे. आचार्यदेवे तीरनुं द्रष्टांत
आपीने आ वात स्पष्ट करी छे.
(१) जेम तीर छे ते लोहमय छे, लोहमयपणुं ते तेनुं स्वद्रव्य छे; तेम चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा
पोताना गुणपर्यायमय छे ते तेनुं स्वद्रव्य छे, एवा स्वद्रव्यथी तेनुं अस्तित्व छे.
(२) जेम ते लोहमय बाण दोरी अने धनुष्यनी वच्चे पोताना लोहमय स्वक्षेत्रमां रहेलुं छे; तेम आत्मा
पोताना असंख्यात चैतन्य प्रदेशोरूपी स्वक्षेत्रमां रहेलो छे ते ज आत्मानुं रहेठाण अर्थात् स्वक्षेत्र छे. ए
सिवाय, आत्मा सौराष्ट्र देशमां रहेलो छे के आत्मा शरीरमां रहेलो छे–एम कहेवुं ते आत्मानुं खरुं क्षेत्र नथी, ते
तो आत्माथी बाह्यक्षेत्र छे. बाह्यक्षत्रमां आत्मानुं अस्तित्व नथी पण पोताना क्षेत्रमां ज आत्मानुं अस्तित्व छे.
(३) कोई लक्षनी सामे संधायेली अवस्था ते तीरनो स्वकाळ छे, तेमां ते रहेलुं छे; तेम आत्मा पोतानी
वर्तमान एक समयनी जे अवस्था वर्ती रही छे तेमां रहेलो छे, ते तेनो स्वकाळ छे. पैसा–कुटुंब–आबरू वगेरे
बधुं बराबर होय त्यारे लोको कहे छे के हमणां अमारे सारो काळ छे, अने ज्यां कांईक फेरफार थाय त्यां कहे छे
के हमणां अमारे माठो काळ आव्यो छे, पण खरेखर पैसा वगेरे पर वस्तु आवे के जाय तेनी साथे आत्माना
स्वकाळनो संबंध नथी. आम समजे तो,