Atmadharma magazine - Ank 096
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २५६ : आत्मधर्म २४७७ : आसो :
विकारभाव ते नैमित्तिक, ने परद्रव्य ते निमित्त;–एम विकारनुं निमित्त–नैमित्तिकपणुं पर साथे छे, पण
आत्माना स्वभाव साथे नथी, माटे आत्मा तेनो अकर्ता ज छे. आवा आत्मस्वभावनी द्रष्टि थतां ज
मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण थई जाय छे. खरी रीते मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण करवुं नथी पडतुं पण ज्यां स्वभाव तरफ
वळ्‌यो त्यां मिथ्यात्वनी उत्पत्ति ज न थई, एटले मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण कर्युं एम कहेवाय छे.
जुओ! आ प्रतिक्रमण करवानी वात चाले छे. बधा पापमां सौथी मोटुं पाप मिथ्यात्वनुं छे, सौथी
पहेलांं ते मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण थाय छे. अनादिना मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण कर्या विना धर्मनी शरूआत थती
नथी. जेणे मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण करवुं होय तेणे शुं करवुं? –के आत्मानो ज्ञानस्वभाव विकारनो अकर्ता छे–
एम समजीने पोताना स्वभावनी द्रष्टि करतां मिथ्यात्वनुं प्रतिक्रमण थई जाय छे, ने भविष्यना मिथ्यात्वनुं
प्रत्याख्यान पण भेगुं ज थई जाय छे. अनादिथी एक सेकंडमात्र पण जीवे आवुं प्रतिक्रमण कर्युं नथी. जो
एकवार पण आवुं प्रतिक्रमण करे तो अल्पकाळमां मूक्ति थया विना रहे नहि.
अहो! आत्मानो निरपेक्ष अकर्ता स्वभाव! तेमां अंतर्मुख था!
वाह! जुओ तो खरा, आचार्यदेव आत्मानो निरपेक्षस्वभाव बतावे छे. कोई पण निमित्तनी उपाधि
भगवान आत्माने नथी. विभाव अने विभावना निमित्तो–ए बंनेनो आत्मा अकर्ता छे. विभावमां परद्रव्य
निमित्त छे, विभाव परना आश्रये थाय छे पण आत्माना आश्रये थतो नथी, माटे आत्मा स्वभावथी विकारनो
अकर्ता छे. अहो! आवुं अकर्तापणुं जेने गोठे तेने विकारनी रुचि रहे ज नहि. चैतन्यस्वभाव ज्ञानमूर्ति
भगवान आत्मा निरपेक्ष निरालंबी छे, कोई पण परनुं आलंबन तेने नथी अने परावलंबने थतो विकार पण
तेने नथी. आवा महिमावंत पोताना स्वभावने न मानतां जेणे एक पण परद्रव्यनी के परना आश्रये थता
विकारनी रुचि करी तेणे स्वभावनो अनादर करीने त्रणे काळना विभावनुं अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यान कर्युं
छे, ते मोटो अधर्म छे. हे भाई! ते अधर्मने छोडीने हवे जो तारे धर्म करवो होय तो, आचार्य भगवान कहे छे
के, परवस्तु अने तेना आश्रये थता विभावथी रहित एवो तारो चैतन्यस्वभाव कायम छे तेनी द्रष्टि करीने
तेमां अंतर्मुख था. जेणे अंतर्मुख वलण छोडीने कोई पण बहिर्मुख वलणथी लाभ मान्यो ते मिथ्याद्रष्टि छे, –
पछी भले आ आत्मा सिवाय सिद्ध भगवान प्रत्ये के तीर्थंकर भगवान प्रत्येनुं वलण होय, तोपण ते भावथी
लाभ माने ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. माटे हे जीव! तुं पर चीजनी अने पर चीजना आश्रये थता विकारनी रुचि
छोड ने अंर्तस्वभावनी रुचि कर, एवो सर्वज्ञना आगमनो हुकम छे, ते आत्माने विकारनुं अकर्तापणुं छे एम
जाहेर करे छे.
स्वभावसन्मुख थईने निमित्त साथेनो संबंध तोडवो ते धर्म छे.
सम्यग्द्रष्टिए पोताना अकर्ता–ज्ञायक साक्षी–स्वभावने जाण्यो छे, तेथी तेने पुण्य–पापनी भावना होती
नथी पण पुण्य–पापरहित चिदानंद आत्मस्वभावनी ज भावना होय छे. आत्मस्वभाव पोते विकारनुं कारण
नथी, विकारनुं निमित्त परवस्तु ज छे. –आम जे द्रव्य अने भावनो निमित्त–नैमित्तिक संबंध भगवाने कह्यो छे
ते आत्माना अकर्तापणाने जाहेर करे छे. जेणे निमित्त–नैमित्तिकनी संधि तोडी नाखी ने स्वभाव साथे संधि
जोडी ते जीव विकारनो कर्ता थतो नथी. रागना अने निमित्तना संबंधने जाहेर करतुं ज्ञान आत्मस्वभावमां
जोडाण करे छे ने निमित्त साथेना संबंधने तोडी नांखे छे; माटे आत्मा विभावनो अकर्ता छे. आवा आत्मानी
रुचि–प्रतीति–महिमा करीने तेनी सन्मुख थवुं ते धर्म छे.
आ वात समज्या विना मिथ्यात्वनां मूळ उखडे नहि. निरपेक्षस्वभावने न अनुमोदतां निमित्त–
नैमित्तिक–भावने अनुमोदवो ते ज अधर्मनुं मूळ छे; ने पर साथेना निमित्त नैमित्तिक संबंधनी द्रष्टि छोडीने
निरपेक्षस्वभावनी सन्मुख थवुं ते धर्मनुं मूळ छे.