Atmadharma magazine - Ank 096
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७७ आत्मधर्म : २५७ :
‘स्वानुभूत्या चकासते’
[आत्मानी धर्मक्रिया]



श्री समयसारनी टीकाना मंगलाचरणमां शुद्ध आत्माने नमस्कार करतां आचार्यदेव कहे छे के ‘
नमः
समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते’ समयसार एटले शुद्ध आत्मा, तेने नमस्कार हो. ते आत्मा पोतानी ज
अनुभवनरूप क्रियाथी प्रकाशे छे, अर्थात् पोताने पोताथी ज जाणे छे–प्रगट करे छे.
जुओ! आमां आत्मानी धर्मक्रियानी वात छे. आत्मा कई क्रियाथी प्रकाशे छे? पोतानी ज अनुभवनरूप
क्रियाथी आत्मा प्रगटे छे. रागनी क्रियाथी के देहनी क्रियाथी आत्माने धर्म थाय–ए मिथ्याद्रष्टिओए मानेली वात
छे. विकार वडे के देहादिनी कोई क्रिया वडे आत्मा जणातो नथी अने ते वडे आत्मानो धर्म थतो नथी. आत्माना
धर्मनी क्रिया तो जडथी अने रागथी पार छे. शुद्ध आत्मानी स्वानुभूति ते ज आत्मानी धर्मक्रिया छे. जड
शरीरनी क्रियाथी तो आत्माने धर्म के अधर्म थतो नथी, ने पुण्य–पाप ते विकारनी क्रिया छे ते क्रिया वडे
आत्मानो धर्म थतो नथी, अज्ञानी जीवे अनादिथी पैसामां ने शरीरनी क्रियामां तथा पुण्यमां धर्म मान्यो छे ते
संसारमां रखडवानी क्रिया छे, तेमां धर्म नथी. हुं शुद्ध चैतन्यसत्ता छुं–एम आत्माना अनुभवरूप क्रियाथी धर्म
थाय छे, ए क्रिया ज मोक्षनुं कारण छे. ज्ञानने अंर्तस्वभावमां वाळीने एकाग्र करवुं ते स्वानुभूतिनी क्रिया छे,
तेनाथी आत्मा जणाय छे. दयादि पुण्यनी क्रियाथी के शरीरादि जडनी क्रियाथी आत्मा जणातो नथी.
चैतन्यस्वभावनी रुचि अने तेना आश्रयनी अंतरनी ज्ञानक्रियाथी ज सम्यग्क्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट थाय
छे. आ रीते ज्ञानस्वभावनी एकाग्रताथी ज धर्म थाय छे.
सम्यग्दर्शन थया पछी पण जे व्रतादिना विकल्पो थाय छे ते राग छे, ते खरेखर आत्मानी धर्मक्रिया
नथी. ज्यां व्रतादिना रागनी रुचि छे त्यां तो आत्मा प्रकाशतो ज नथी; व्रतादिनी रुचिवाळो जीव मिथ्याद्रष्टि
छे, ते रुचि छूटीने ज्ञानस्वभावनी रुचि थाय–ते क्रियाथी आत्मा प्रकाशे छे–जणाय छे. कोई निमित्तथी के पुण्य–
पापथी आत्मा जणातो नथी, रागरहित अंतरनी स्वानुभूतिथी ज आत्मा जणाय छे. पहेलांं पर तरफनी रुचि
हती ते पलटीने ज्ञानस्वभाव तरफ रुचिने फेरवी, ते रुचि पलटवानी क्रिया थई, ते क्रिया वडे आत्मा पोते
पोताने जाणे छे. राग अने परनी क्रिया विनानो अंतरनो चैतन्यस्वभाव छे ते पोते ज पोताने जाणे छे, पोते
ज पोताने प्रगट करे छे. स्वभावना आश्रये ज सम्यग्ज्ञाननी क्रियानो उत्पाद थाय छे. देव–गुरु–शास्त्र वगेरे पर
तरफना लक्षे कषायनी मंदताथी शुभपरिणाम थाय ते पुण्य छे, विकार छे, तेथी ते अधर्म छे, तेने धर्म माने ते
अधर्मी छे. धर्म तो अंर्तस्वभावमां एकाग्रतारूप स्वानुभूतिनी क्रियाथी ज थाय छे. शुभराग थाय ते
स्वानुभूतिनी क्रिया नथी ने तेनाथी आत्मा जणातो नथी. अंतरमां ज्ञाननी एकाग्रतारूप स्वानुभूतिथी आत्मा
पोते पोताने स्वज्ञेय करे छे. आ ज सम्यग्दर्शन थवानी रीत छे.
शुद्ध आत्मा परथी जणाय तेवो नथी. श्रवण पण पर चीज छे, ते श्रवणथी आत्मा जणाय तेवो नथी;
श्रवणना लक्षे तो शुभराग थाय छे. जे जीवमां यथार्थ लायकात अने समजणनी तैयारी होय तेने सत्
श्रवणनो