Atmadharma magazine - Ank 096
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७७ आत्मधर्म : २५९ :
श्रद्धा वगर स्वानुभूति थाय नहि ने आत्मा प्रकाशे नहि. आत्मा पोतानी स्वानुभूतिथी चकासे छे ने ते
स्वानुभूति आत्मानी ओळखाण तथा श्रद्धाथी थाय छे.
‘केवळी भगवाननी जेम आत्माना असंख्य प्रदेशो अने अनंतगुणो प्रत्यक्ष जणाय तो ज सम्यग्ज्ञान
थयुं कहेवाय, नहितर त्यां सुधी मिथ्याज्ञान कहेवाय’ ––एम माननारने पण वस्तुस्वरूपनुं भान नथी. नीचली
दशामां साधक धर्मात्माने स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी आत्मानुं सम्यग्ज्ञान थवा छतां, ते क्षणे ज पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान
प्रगटतुं नथी. छतां जेवो केवळी भगवाने आत्माने जाण्यो छे तेवो ज आत्मा स्वसंवेदन पूर्वक अनुमानथी
साधकना ज्ञानमां आवी गयो छे एटले तेने पण सम्यग्ज्ञान थयुं छे. श्रद्धामां आखो आत्मा आव्यो छतां ते
क्षणे पर्यायमां आखो प्रगटे नहि–आवो अनेकांतस्वभाव छे. श्रद्धामां पूरो परमेश्वर आव्यो छे छतां पर्यायमां
हजी पामरता छे, ज्ञानमां पूर्ण स्वभाव आव्यो छे छतां ज्ञान पोते हजी पूरुं परिणमतुं नथी, ––वस्तु–स्वरूप ज
आवुं अनेकांतात्मक छे. जेम छे तेम वस्तुने ख्यालमां लईने निर्णय करशे तो ज ज्ञान वस्तुना स्वभाव तरफ
वळशे. वस्तुस्वरूपना यथार्थ निर्णय वगर निर्विकल्पता थाय नहि.
साधकदशामां आत्मा पोते पोताने न जाणी शके, केवळज्ञान थाय त्यारे ज आत्मा जणाय–एम जे माने
छे ते साधकपणामां आत्माने सर्वथा परोक्ष ज माने छे एटले ते अज्ञानी छे. साधकदशामां आत्माने सर्वथा
परोक्ष ज माने तो तेने आत्मानुं स्वसंवेदनप्रत्यक्ष क्यांथी थाय?
वळी, साधकने आत्मज्ञान थतां त्यां पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान ज थई जवुं जोईए ने परोक्षज्ञान बिलकुल होवुं ज
न जोईए–एम जो साधकदशामां आत्माने सर्वथा प्रत्यक्ष ज माने तो ते पण मिथ्या छे, तेनी मान्यतामां तो
बारमा गुणस्थान सुधीना बधा जीवो अज्ञानी ठरशे एटले साधकदशानो ज अभाव थशे, साधकदशाना
अभावमां सिद्धदशानो पण अभाव ठरशे. साधकने स्वसंवेदनप्रत्यक्षनी साथे परोक्षज्ञान पण भले हो, पण
तेनी श्रद्धानुं जोर तो स्वभावसन्मुख ज वर्ते छे, ते श्रद्धाना जोरे तेना ज्ञानमां स्वसंवेदनप्रत्यक्ष वधतुं जाय छे
ने परोक्षपणुं घटतुं जाय छे. जो परोक्षज्ञानने न माने तो साधकदशा ज साबित न थाय.
‘साधकने स्वभावना आश्रये सम्यक् मति–श्रुत ज्ञान प्रगट्या तेनी खबर न पडे, पण केवळज्ञान थाय
त्यारे तेनी खबर पडे’ –एम माननार पण अज्ञानी छे, केम के ज्ञान पोते पोताने नथी जाणतुं एम तेओ माने
छे. नीचली दशामां प्रगटेलुं सम्यग्ज्ञान पण निःसंदेहपणे पोते पोताने जाणे छे. थोडा ज्ञानमां पण स्वसंवेदनथी
पूर्ण आत्माने तथा पोताने (–उघडेला सम्यग्ज्ञानने) जाणवानी ताकात छे. घणुं ज्ञान थया पछी ज ज्ञान पोते
पोताने जाणी शके–एवुं नथी. ज्यां ज्ञानस्वभावना आश्रये ज्ञाननी क्रिया थई ने सम्यग्ज्ञान खील्युं ते क्षणे ज
ज्ञानस्वसंवेदनथी पोते पोताने जाणे छे–आवो ज्ञान स्वभाव छे. आवा स्वानुभूतिथी प्रकाशमान शुद्ध आत्माने
जाणवो ते अपूर्व मांगळिक छे; आ ज धर्म छे. आ सिवाय बीजी कोई रीते धर्म थतो नथी.
नीचली दशामां सम्यग्ज्ञाननी साथे अल्प राग–द्वेष पण होय छे, पण ज्ञानी जाणे छे के ते अधर्म छे,
जेटलुं रागरहित स्वसंवेदन थयुं तेटलो ज धर्म छे. कोई एम कहे के ‘राग–द्वेष तो अधर्म छे माटे ज्यां राग–द्वेष
होय त्यां धर्मनो अंश पण न होय.’ –तो एम नथी. राग–द्वेष पोते धर्म नथी ए वात साची, पण अल्प राग–
द्वेष होवा छतां सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानरूप धर्म होई शके छे. रागने धर्म माने तो तो श्रद्धा–ज्ञान पण मिथ्या ज छे.
परंतु रागरहित ज्ञानस्वभावने जाणीने तेनी श्रद्धा थई होय ने राग सर्वथा टळ्‌यो न होय तो तेथी कांई श्रद्धा–
ज्ञान मिथ्या थई जता नथी. तेम ज त्यां राग–द्वेषरूप अधर्म छे माटे सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानमां खामी छे एम पण
नथी; राग–द्वेष होवा छतां क्षायकश्रद्धा पण होय छे. केम के श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वगेरे अनंतगुणो छे ते सर्वथा
अभेद नथी. पूर्णनी श्रद्धा थया पछी पूर्णदशा प्रगटतां वार लागे छे. परंतु, पूर्णता प्रगट थवानो स्वभाव छे ते
प्रतीतमां आव्यो एटले अल्पकाळे पूर्णता प्रगट थया विना रहेशे नहि.
आत्मानो स्वभाव पोते पोतानी स्वानुभूतिथी जणाय तेवो छे एटले पोते पोताने जाणी शके छे; ते
स्वानुभूति इंन्द्रियोथी ने रागथी पार छे. आवी स्वानुभूति ते ज मुक्तिनो मार्ग छे, तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र त्रणे समाई जाय छे.
–वीर सं. २४७६ प्र० अषाड सुद १०. श्री समयसार कलश
१ उपर पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी.