
धर्म थतो नथी. पर्यायबुद्धिथी धर्म थाय एम मानवुं ते एकांत छे. द्रव्यना आश्रये धर्म थाय छे तेने बदले
पर्यायना आश्रये जेणे धर्म मान्यो तेनी मान्यतामां पर्याये ज द्रव्यनुं काम कर्युं एटले पर्याय ते ज द्रव्य थई गयुं,
तेनी मान्यतामां द्रव्य–पर्यायनुं अनेकान्तस्वरूप न आव्युं. द्रव्यद्रष्टिथी–द्रव्यना आश्रये ज धर्म थाय ने
पर्यायबुद्धिथी धर्म न थाय एम मानवुं ते अनेकान्त छे.
स्वभावना आश्रये तेने सम्यग्दर्शन–ज्ञानादि धर्म थाय; आ रीते अनेकान्तनी ओळखाणथी धर्मनी शरूआत
थाय छे. जे जीव आवुं अनेकान्तस्वरूप न जाणे ते कदी परनो आश्रय छोडीने पोताना स्वभाव तरफ वळे नहि
श्राविकाशाळामां जईने उत्साहपूर्वक तत्त्वनो अभ्यास करता हता. तेमना अंत
समयना एकाद कलाक पहेलांं पू. गुरुदेवश्री तेमने दर्शन कराववा पधारेला, अने
ज्यारे पू. गुरुदेवश्रीए मांगळिक संभळावी लीधुं के तरत ज मोटा अवाजे ‘“
शांति’... एम उत्साहपूर्वक ते बोली ऊठ्या हता; तेमनो उत्साह जोईने पू.
गुरुदेवश्रीए कह्युं: ‘बेन! आत्मानुं ध्यान राखजो!’ आ उपरथी छेवट सुधीनी
तेमनी जागृति जणाई आवे छे. जीवनमां करेला सत्समागमना संस्कार साथे लई
जईने तेमणे पोतानुं जीवन सार्थक कर्युं छे. खरेखर! आ क्षणभंगुर जीवनमां
सत्समागम ए ज जीवने शरण छे. जीवननी आवी क्षणभंगुरता देखीने
मुमुक्षुओए तो क्षणमात्रना पण प्रमाद वगर शीघ्र आत्मकार्य करी लेवा जेवुं छे.
पोताना जीवनने वैराग्य तरफ वाळ्युं छे अने ब्रह्मचर्यनी प्रतिज्ञा अंगीकार करी
छे, ते प्रशंसनीय छे.
आपवामां आव्या छे; ते उपरांत रूा. प०२ जुदा जुदा खातामां तेमणे आप्या
छे. ते बदल तेमनो आभार मानवामां आवे छे.