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रखडे छे; चारे गतिमां अनंत अवतार जीव करी चूक्यो छे, पण तेमां देव, नरक अने तिर्यच गतिना भव करतां
मनुष्यना भव बहु थोडा कर्या छे. चार गतिना जीवोमां मनुष्योनी संख्या बहु थोडी छे अने मनुष्यदेह मळे
तेवा भाव करनारा जीवो पण थोडा छे. मनुष्यभव पामीने पण सत्यनुं श्रवण मळवुं महा दुर्लभ छे. सत्य
तत्त्वना श्रवण वगर तेनी रुचि क्यांथी करे? माटे, आ दुर्लभ मनुष्य अवतार अने यथार्थ तत्त्वना श्रवणनो
योग पामीने आत्मानी समजण करी लेवी जोईए. आत्मानी दरकार विना जो आंख मींचाणी तो फरी
अनंतकाळे पत्तो खावो मुश्केल छे.
दया, दान वगेरेनी वात तो बधा करे छे, ते कांई अपूर्व नथी, ते वात तो जीव अनंतवार करी चूक्यो छे, दया–
दान वगेरेथी पुण्य बांधीने अनंतवार मोटो राजा थयो ने स्वर्गनो देव पण थयो, पण वास्तविक आत्मतत्त्व
रागरहित चैतन्यमूर्ति छे तेना भान वगर कल्याण थयुं नहि.
स्वभावने नहि जाणवाथी पुण्य–पापने ज जे पोतानुं स्वरूप मानी रह्यो छे एवा अज्ञानी जीवने पर्यायमां
विकार अने जड कर्म साथेनो संबंध थाय छे. आत्माना अज्ञानने लीधे अज्ञानी अनंतकाळथी बंधायेलो छे. ते
बंधन केम टळे? –के पोतानो स्वभाव शुद्ध चैतन्य छे, विकार करवानो पोतानो स्वभाव नथी–एम जो
स्वभावने समजे तो ते स्वभावना आश्रये बंधननो नाश थाय. प्रथम वस्तुस्वभावने ओळखवो ते ज धर्मनी
रीत छे.
थाय ते जाण्या विना कदी धर्म थई शके नहि.
रागादि परिणामोने कदी पोताना करतो नथी, पण ते रागादिने पोताना स्वभावथी जुदा ज जाणे छे तेथी तेने
बंधन थतुं नथी.