Atmadharma magazine - Ank 096
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७७ आत्मधर्म : २४९ :
“धार्मिकोत्सव – प्रवचनो”
[१]
[श्रवण वद १२: समयसर ग. २८२]
सत्ना श्रवणनी दुर्लभता
जुओ! अनंतकाळमां प्रथम तो मनुष्यदेह मळवो दुर्लभ छे, अने तेमां पण आत्माना स्वरूपनुं साचुं
श्रवण मळवुं अनंतकाळे दुर्लभ छे. आत्मस्वभावना भान वगर अनादि काळथी जीव संसारनी चार गतिमां
रखडे छे; चारे गतिमां अनंत अवतार जीव करी चूक्यो छे, पण तेमां देव, नरक अने तिर्यच गतिना भव करतां
मनुष्यना भव बहु थोडा कर्या छे. चार गतिना जीवोमां मनुष्योनी संख्या बहु थोडी छे अने मनुष्यदेह मळे
तेवा भाव करनारा जीवो पण थोडा छे. मनुष्यभव पामीने पण सत्यनुं श्रवण मळवुं महा दुर्लभ छे. सत्य
तत्त्वना श्रवण वगर तेनी रुचि क्यांथी करे? माटे, आ दुर्लभ मनुष्य अवतार अने यथार्थ तत्त्वना श्रवणनो
योग पामीने आत्मानी समजण करी लेवी जोईए. आत्मानी दरकार विना जो आंख मींचाणी तो फरी
अनंतकाळे पत्तो खावो मुश्केल छे.
सरस, झीणी, ऊंची अने अपूर्व वात
अत्यारे आत्मस्वभावनी घणी सरस वात आवी छे. झीणी लागे तो पण आ ज वात समजवा जेवी छे.
बहारनी साधारण वात तो अनंतवार सांभळी छे पण आ आत्मस्वभावनी ऊंची वात कदी नथी समज्यो.
दया, दान वगेरेनी वात तो बधा करे छे, ते कांई अपूर्व नथी, ते वात तो जीव अनंतवार करी चूक्यो छे, दया–
दान वगेरेथी पुण्य बांधीने अनंतवार मोटो राजा थयो ने स्वर्गनो देव पण थयो, पण वास्तविक आत्मतत्त्व
रागरहित चैतन्यमूर्ति छे तेना भान वगर कल्याण थयुं नहि.
बंधना नाशनी अने धर्मनी रीत
आत्मा एक स्वतंत्र चैतन्यमूर्ति पदार्थ छे; तेने पर्यायमां विकार, अने कर्म वगेरे बीजा तत्त्वो साथे जे
संयोग देखाय छे तेनुं कारण शुं? पोताना स्वभावथी वस्तुमां विकार–दुःख के संयोग न होय. आत्माना
स्वभावने नहि जाणवाथी पुण्य–पापने ज जे पोतानुं स्वरूप मानी रह्यो छे एवा अज्ञानी जीवने पर्यायमां
विकार अने जड कर्म साथेनो संबंध थाय छे. आत्माना अज्ञानने लीधे अज्ञानी अनंतकाळथी बंधायेलो छे. ते
बंधन केम टळे? –के पोतानो स्वभाव शुद्ध चैतन्य छे, विकार करवानो पोतानो स्वभाव नथी–एम जो
स्वभावने समजे तो ते स्वभावना आश्रये बंधननो नाश थाय. प्रथम वस्तुस्वभावने ओळखवो ते ज धर्मनी
रीत छे.
संसारमां जे वस्तु लेवी होय ते वस्तुने पहेलांं ओळखे छे अने तेना भाव–तालने जाणे छे. तो जेने
आत्मानो धर्म करवो होय तेणे प्रथम आत्माने ओळखवो तो जोईए ने! आत्मा शुं चीज छे अने तेने धर्म केम
थाय ते जाण्या विना कदी धर्म थई शके नहि.
अज्ञानी बंधाय छे, ज्ञानी बंधातो नथी
आत्मानो मूळ स्वभाव तो स्वच्छ ज्ञाताद्रष्टा छे; एवा स्वभावनो जे अजाण छे एवा अज्ञानी जीवने
जे राग–द्वेष–मोहादि परिणामो छे ते ज बंधनुं कारण छे. जे पोताना शुद्धस्वभावने जाणे छे एवो धर्मात्मा
रागादि परिणामोने कदी पोताना करतो नथी, पण ते रागादिने पोताना स्वभावथी जुदा ज जाणे छे तेथी तेने
बंधन थतुं नथी.