Atmadharma magazine - Ank 096
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २५० : आत्मधर्म २४७७ : आसो :
अपूर्व धर्मक्रिया
यथार्थ आत्मतत्त्वनो निर्णय करवो ते अनंतकाळे नहि करेली एवी अपूर्व धर्मक्रिया छे; ए सिवाय पर
जीवनी दया–दान वगेरे शुभ भावनी क्रिया ते कांई अपूर्व नथी, एवुं तो अज्ञानी पण अनंतवार करी चूक्यो छे.
अहीं तो जेनाथी अनंतकाळना जन्ममरणनो अंत आवी जाय एवी अपूर्व धर्मक्रियानी वात छे.
. शुं करवुं?
पहेलांं तो अंतरमां जिज्ञासु थईने आ वातनुं श्रवण करवुं जोईए, आवी सत्य वात ज्यां सांभळवा
मळे त्यां वारंवार समागम करवो जोईए; स्वाध्याय अने चर्चा–विचारणा करीने तत्त्वने नक्की करवुं जोईए.
यथार्थ तत्त्वने नक्की करवुं ते पण धर्मनी क्रिया छे.
कर्म साथेना निमित्तनैमित्तिक संबंधनी द्रष्टिथी अज्ञानी बंधाय छे ने ज्ञानीए
स्वभावद्रष्टिना जोरे निमित्त साथेनो संबंध तोडी नाख्यो छे तेथी ते बंधाता नथी
आत्मा अने कर्म बंने भिन्न भिन्न चीज छे; जेने आत्मा उपर द्रष्टि छे तेनी द्रष्टिमां कर्मनो अभाव छे,
अने जेने कर्म उपर द्रष्टि छे तेनी द्रष्टिमां आत्मानो अभाव छे. धर्मीने स्वभावद्रष्टिमां ‘आत्मा’ ज छे एटले
तेने तो जूनुं कर्म निमित्तपणे पण नथी. जेनी द्रष्टि कर्म उपर छे तेने ज जूनुं कर्म नवा बंधननुं निमित्त थाय छे.
अज्ञानीनी द्रष्टिमां ‘आत्मा’ नथी पण कर्म ज छे एटले तेने ज कर्म निमित्तरूपे छे. अंर्त द्रष्टिना परिणमनमां
ज्ञानीने स्वभावनो ज उदय छे ने कर्मनो उदय नथी;–अज्ञानीने कर्मनो उदय छे ने स्वभावनो उदय नथी. धर्मी
जीव गृहस्थपणामां होय ने अल्प राग–द्वेष थता होय तो पण स्वभावद्रष्टिमां तेने गण्या ज नथी अने अज्ञानी
बाह्यत्यागी द्रव्यलिंगी थईने बेठो होय पण अंदर ऊंडे ऊंडे शुभविकल्पनी रुचि पडी होय, तेने तो क्षणे क्षणे
जूनुं कर्म नवा बंधननुं निमित्त थई रह्युं छे.
पूर्वे विकारभाव करेलो तेना निमित्ते जे कर्म बंधायुं ते कर्म फरीने राग–द्वेष–मोहनुं निमित्त कोने थाय
छे? –के जेने शुद्ध आत्मानो विश्वास नथी अने कर्म तरफ ज वलण छे एवा अज्ञानीने ज पूर्व कर्म फरीने राग
द्वेष–मोहनुं निमित्त थाय छे. धर्मीने तो स्वभावद्रष्टिना परिणमनने लीधे शुद्धता ज वधती जाय छे एटले तेने
पूर्वनुं कर्म नवा बंधननुं निमित्त थतुं नथी. अस्थिरतानुं जे अल्प बंधन छे तेनो स्वभावद्रष्टिमां स्वीकार नथी.
अज्ञानी तो क्षणिक रागने ज पोतानुं स्वरूप मानी रह्यो छे, स्वभावनी द्रष्टि नथी पण निमित्त उपर ज द्रष्टि
पडी छे, तेथी कर्मना निमित्ते जे राग–द्वेष–मोहादि भावो थाय छे ते ज नवा कर्मबंधननुं कारण छे अने ते नवा
कर्मो ते अज्ञानीने फरीने उदय वखते पण मोहभावमां ज निमित्त थशे; कदाचित् पुण्य बांधीने भगवान पासे
जशे तो त्यां पण भगवानने सम्यग्ज्ञानादिनुं निमित्त ते नहि बनावे, पण निमित्ताधीनद्रष्टिने लीधे पूर्व कर्मना
उदयने मिथ्यात्वादिनुं ज निमित्त बनावशे. आ रीते जेने चैतन्य–परमेश्वरनी प्रतीति नथी ने कर्मना निमित्त
उपर ज द्रष्टि छे तेवा अज्ञानीने कर्मनी परंपरा चाल्या ज करे छे. धर्मी जीवे स्वभावद्रष्टिना बळथी अनादिना
कर्मनी परंपराने तोडी नांखी छे ने निर्मळ पर्यायनी परंपरा आत्मा साथे जोडी छे. द्रष्टि उपर धर्म–अधर्मनो
आधार छे. धर्मीनी द्रष्टि स्व उपर छे, अधर्मीनी द्रष्टि पर उपर छे. स्व उपरनी द्रष्टिथी धर्मनी परंपरा चाले छे
ने पर उपरनी द्रष्टिथी अधर्मीने कर्मनी परंपरा चाले छे; निमित्त उपरनी द्रष्टि होवाथी तेने कर्म साथेनो
निमित्तनैमित्तिक संबंध रह्या ज करे छे. आत्माना स्वभावने कर्म साथे निमित्त–नैमित्तिक संबंध पण नथी,
एवा द्रव्यस्वभावने जाण्या विना मिथ्याबुद्धि टळती नथी. अज्ञानीने पर्यायबुद्धिथी वर्तमान तो मिथ्यात्व छे ने
भविष्यमां पण कर्मना उदय वखते तेने पर्यायबुद्धिने लीधे मिथ्यात्व ज थशे; संयोग अने विकारीभाव उपर
द्रष्टि राखीने ते ज्यां ज्यां जशे––समवसरणमां साक्षात् भगवान पासे जशे––तो त्यां पण ते मिथ्यात्वभावने
ज उत्पन्न करशे. अहीं तो बंधन सिद्ध करवुं छे एटले जे जीव पर्यायबुद्धि चालु राखे छे तेनी आ वात छे. कोई
जीव भविष्यमां स्वभावने समजीने मिथ्यात्व टाळे तेने आ वात लागु पडती नथी.