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अल्पबंधन छे पण तेने पर्यायनी बुद्धि नथी. जुओ भाई! आत्मानो आवो स्वभाव सांभळतां एक वार
अंदरथी आत्मा ऊछळवो जोईए... आत्माने माटे एम उल्लास आववो जोईए के अरे! सिद्ध समान मारो
स्वभाव, ने मारा अजाणपणे मने संसार रहे–ए केम पालवे? अहो! मारुं आवुं स्वरूप अनादिथी में सांभळ्युं
न हतुं... अत्यारथी मांडीने सादि–अनंत काळ आत्माने माटे आपीने पण हवे मारे मारुं हित करवुं छे. ––आम
अंदरथी आत्मानी धगश करीने सत्समागम करवो जोईए अने वारंवार अंतरमां परिचय करवो जोईए. आ
तो जेने आत्मानी दरकार होय ने अनादिना जन्म–मरणथी थाक लाग्यो होय तेने माटे वात छे.
कर्मना उदयमां द्रष्टि राखीने फरीने मिथ्यात्व ज उत्पन्न करशे. जे पुण्य करतां करतां धर्म थशे एम माने छे, जेने
पुण्य उपर अने निमित्त उपर द्रष्टि पडी छे, तेने पुण्यनो उदय भविष्यमां धर्मनुं तो निमित्त नहि थाय, पण
मिथ्यात्वनुं ज निमित्त थशे. ‘अत्यारे तो समकित वगर व्यवहारचारित्र पाळो, तेनाथी पुण्य थशे, पुण्यथी
भगवान पासे जशुं, ने त्यां जईने समकित पामी जशुं’ एवी जेनी भावना छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, ते पुण्यने पण
भविष्यमां मिथ्यात्वनुं निमित्त बनावशे. जुओ, आ वात समजवा जेवी छे. अज्ञानीने कर्म विकार करावे छे–
एम नथी, पण तेनी द्रष्टि ऊंधी छे तेथी ज तेने कर्मनो उदय फरी फरीने मिथ्यात्वनुं निमित्त थाय छे.
भगवाननी दिव्यवाणीमां तो स्वभावद्रष्टिनो ज उपदेश आवे छे, पण अज्ञानीने पोतानी रुचि ज ऊंधी छे त्यां
भगवाननो उपदेश शुं करे? अज्ञानी तो भगवान पासे जईने पण, भगवानने सम्यक्त्व वगेरेनुं निमित्त नहि
बनावे पण मिथ्यात्वभाव करीने कर्मना उदयने मिथ्यात्वनुं निमित्त बनावशे. ए रीते, आ बंध अधिकारमां
अज्ञानीने ज बंधन गण्युं छे; अज्ञानीने ऊंधा भावमां भविष्यमां कर्मनुं निमित्तपणुं आवशे, पण सत्समागमनुं
निमित्तपणुं तेने नहि थाय. सत्समागम तो स्व तरफ वळवानुं कहे छे, जो स्व तरफ वळे तो ज सत्समागमने
निमित्त कहेवाय.
मोक्षमार्गनी शरूआतनो अंश पण थतो नथी. साधु नाम धरावनारा पण जो एम कहे के ‘हमणां
व्यवहारचारित्रथी पुण्य बांधीने पछी भगवान पासे जशुं अने त्यां भगवानना निमित्ते निश्चयसम्यकत्त्व
पामशुं, ’ तो तेमां एकदम ऊंधी द्रष्टि छे, तत्त्वनी घणी विपरीत मान्यता छे. आचार्यदेव कहे छे के अरे जीव!
जो तारी द्रष्टि ज निमित्त उपर पडी छे तो भविष्यमां पण तने तारी ऊंधी द्रष्टिने लीधे कर्म मिथ्यात्वनुं ज
निमित्त थशे. आ निमित्ताधीन द्रष्टि छोड ने चिदानंद निरपेक्ष स्वभावनी द्रष्टि कर तो अनादिनुं बंधन टळे ने
धर्म थाय. पहेलांं निरपेक्ष स्वभावनी द्रष्टि करवी ते ज जैनधर्मनो मूळ पायो छे.
विकारने ज भाळे छे ते अज्ञानी छे. पर्यायबुद्धिने अहीं ‘आत्मा’ ज गण्यो नथी. केमके राग ते खरेखर आत्मा
नथी तेथी जे भाव रागादिकनो कर्ता थाय ते भावने ‘आत्मा’ गण्यो नथी पण ‘अनात्मा’ गण्यो छे. आत्मा