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छे, ते स्वभावनी द्रष्टिथी तो आत्मा रागनो अकर्ता ज छे.
आत्माने रागद्वेषनो अकर्ता आप कई रीते कहो छो? प्रश्नमां समजवा माटेनी धगश छे. शिष्यने एटली वात
तो बेठी छे के आखो आत्मा कांई रागादिकनो कर्ता नथी. जो आखो आत्मा ज रागादिकनो कर्ता होय तो ते
रागादिनुं कर्तापणुं कदी टळी न शके. रागने ज सदा कर्या करुं एवुं मारुं स्वरूप न होय. तेथी प्रश्न ऊठ्यो के हे
नाथ! आपे आत्माने रागादिकनो अकारक ज कह्यो ते कई रीते छे?
–आ रीतना उपदेशथी, वर्ण्यो अकारक जीवने. २८३.
अणप्रतिक्रमण बे–द्रव्यभावे, एम अणपच्चखाण छे,
अणप्रतिक्रमण वळी एम, अणपच्चखाण द्रव्यनुं, भावनुं,
आपीने आचार्यदेव ते वात समजावे छे. सर्वज्ञ भगवानना आगम केवां होय अने ते आगमनी आज्ञा शुं छे
ते वात पण आमां आवी जाय छे.
शके नहि. साचा देव–गुरु–शास्त्रनी ने नवतत्त्वनी श्रद्धा, अगियार अंगनुं ज्ञान अने पंच महाव्रतनुं पालन
एवो जे व्यवहाररत्नत्रयनो शुभराग ते पण परना ज अवलंबने थाय छे, वस्तुस्वभावथी जोतां आत्मा ते
व्यवहाररत्नत्रयना रागनो पण अकर्ता ज छे. जुओ तो खरा! दरेकनो आत्मा आवो छे, दरेक आत्मा अंदर
चैतन्यप्रभु बिराजी रह्यो छे. आवा आत्मानी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे, ने ते ज अपूर्व कल्याणनो उपाय
छे. ‘निमत्तनो आश्रय छोड, विकार छोड’ आवो आगमनो हुकम छे ते एम जाहेर करे छे के विकार करवानो
आत्मानो स्वभाव नथी. आगमनुं फरमान छे के तुं निमित्तनो आश्रय छोड ने आत्मानो आश्रय कर. कोई पण
निमित्तना आश्रयथी लाभ थाय–एवुं भगवानना आगमनुं फरमान नथी. जे कोई पण परना आश्रयथी लाभ
थवानुं बतावे ते कोई पण देव, गुरु के शास्त्र साचां नथी.