Atmadharma magazine - Ank 096
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: २५२ : आत्मधर्म २४७७ : आसो :
तरफ वळीने आत्माना स्वभाव साथे एकता करे तेने ज अहीं ‘आत्मा’ गण्यो छे. त्रिकाळी स्वभाव रागरहित
छे, ते स्वभावनी द्रष्टिथी तो आत्मा रागनो अकर्ता ज छे.
शिष्यनी समजवा माटेनी धगश
‘आत्मा रागादिकनो अकर्ता ज छे’ ए वात शिष्यने रुचे छे, तेथी ते बराबर समजवा माटे अहीं शिष्य
पूछे छे के: प्रभो! आत्मा रागादिकनो अकारक ज कई रीते छे? पर्यायमां राग–द्वेष थता देखाय छे छतां
आत्माने रागद्वेषनो अकर्ता आप कई रीते कहो छो? प्रश्नमां समजवा माटेनी धगश छे. शिष्यने एटली वात
तो बेठी छे के आखो आत्मा कांई रागादिकनो कर्ता नथी. जो आखो आत्मा ज रागादिकनो कर्ता होय तो ते
रागादिनुं कर्तापणुं कदी टळी न शके. रागने ज सदा कर्या करुं एवुं मारुं स्वरूप न होय. तेथी प्रश्न ऊठ्यो के हे
नाथ! आपे आत्माने रागादिकनो अकारक ज कह्यो ते कई रीते छे?
हवेनी त्रण गाथामां आगमनुं प्रमाण आपीने आचार्यदेव शिष्यनुं समाधान करे छे:–
• गथ: २८३ – ८४ – ८प •
‘अणप्रतिक्रमण द्वयविध, अणपच्चखाण पण द्वयविध छे,
–आ रीतना उपदेशथी, वर्ण्यो अकारक जीवने. २८३.
अणप्रतिक्रमण बे–द्रव्यभावे, एम अणपच्चखाण छे,
–आ रीतना उपदेशथी, वर्ण्यो अकारक जीवने. २८४.
अणप्रतिक्रमण वळी एम, अणपच्चखाण द्रव्यनुं, भावनुं,
आत्मा करे छे त्यां लगी, कर्ता बने छे जाणवुं.’ २८प.
आ अलौकिक गाथाओ छे. ‘चैतन्यस्वभावी भगवान आत्मा रागादिकनो अकर्ता छे’ ए वात
आचार्यदेवे पहेलांं स्फटिकमणिनुं द्रष्टांत आपीने युक्तिथी तो सिद्ध करी दीधी छे, अने हवे आगमनो आधार
आपीने आचार्यदेव ते वात समजावे छे. सर्वज्ञ भगवानना आगम केवां होय अने ते आगमनी आज्ञा शुं छे
ते वात पण आमां आवी जाय छे.
आगमनो हुकम छे के ‘तुं स्वभावनो आश्रय कर, ने निमित्तनो आश्रय छोड!’ –ते एम जाहेर करे
छे के विकार करवानो तारो स्वभाव नथी.
‘आत्मा पोताथी रागादिकनो अकारक ज छे; कारणके, जो एम न होय तो अप्रतिक्रमण अने
अप्रत्याख्यानना द्विविधपणानो उपदेश बनी शके नहि..’
रागादिभावो निमित्तना आश्रये ज थाय छे, पण स्वभावना आश्रये थता नथी, माटे स्वभावथी
आत्मा रागादिभावनो कर्ता नथी. रागादिभावने करवानो जो आत्मानो स्वभाव होय तो ते रागरहित कदी थई
शके नहि. साचा देव–गुरु–शास्त्रनी ने नवतत्त्वनी श्रद्धा, अगियार अंगनुं ज्ञान अने पंच महाव्रतनुं पालन
एवो जे व्यवहाररत्नत्रयनो शुभराग ते पण परना ज अवलंबने थाय छे, वस्तुस्वभावथी जोतां आत्मा ते
व्यवहाररत्नत्रयना रागनो पण अकर्ता ज छे. जुओ तो खरा! दरेकनो आत्मा आवो छे, दरेक आत्मा अंदर
चैतन्यप्रभु बिराजी रह्यो छे. आवा आत्मानी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे, ने ते ज अपूर्व कल्याणनो उपाय
छे. ‘निमत्तनो आश्रय छोड, विकार छोड’ आवो आगमनो हुकम छे ते एम जाहेर करे छे के विकार करवानो
आत्मानो स्वभाव नथी. आगमनुं फरमान छे के तुं निमित्तनो आश्रय छोड ने आत्मानो आश्रय कर. कोई पण
निमित्तना आश्रयथी लाभ थाय–एवुं भगवानना आगमनुं फरमान नथी. जे कोई पण परना आश्रयथी लाभ
थवानुं बतावे ते कोई पण देव, गुरु के शास्त्र साचां नथी.
अंर्तस्वभावनुं अवलोकन
जीवोए पोताना अंर्तस्वभावनुं अवलोकन करवानी कदी दरकार करी नथी. बहारमां कांईक नवुं देखे तो
त्यां आश्चर्य लागे छे पण अंदरमां पोते परमेश्वर शक्तिनो