Atmadharma magazine - Ank 096
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४७७ आत्मधर्म : २५३ :
पिंड छे तेनो महिमा लावीने अंतर्मुख कदी जोयुं नथी. जेम घरमां मोटी किंमतनो ऊंचो दागीनो आवे तो ते
जोवा माटे बधा माणसो केवी होंशथी भेगा थाय छे! तेम खरी रीते तो आवा आत्माना स्वभावने जोवा माटे
बधाए भेगा थवुं जोईए. श्रीमदे पण कह्युं छे के ‘अंतर्मुख अवलोकतां, विलय थतां नहि वार’ –आ संसार
अनादिकाळथी छे, पण जो अंतर्मुख थईने शुद्ध आत्मानुं अवलोकन करे तो क्षणमां तेनो नाश थई जाय छे.
समयसारमां आत्मानो स्वभाव बतावतां आचार्य भगवान कहे छे के आत्मा रागादिक विकारनो
अकर्ता ज छे; केम के जो आत्मा पोते स्वभावथी विकारनो कर्ता होय तो निमित्तना आश्रयने अने विकारने
छोडवानो आगमनो जे हुकम छे तेमां विरोध आवे छे. –कई रीते? ते विशेष कहेवाशे.
‘अहो! आ वात कदी सांभळी नथी’
अत्यारे धर्मना नामे घणा फेरफार देखाय छे. पुण्यथी अने
परथी धर्म मनाय छे. अनादिथी जीव जे मानतो आव्यो छे तेनाथी
आ आत्म–धर्मनी जुदी वात छे. सत्य वात तो जेम छे तेम कहेवी पडे
अने ते मान्ये ज छूटको. सत्यने हळवुं–सोघुं करीने (विपरीत) न
मूकाय. कोई कहे के आ तो बहु ऊंचा दरज्जानी वात छे, तो तेम नथी,
केम के आ तो धर्मना पहेलांमां पहेलां एकडानी वात छे.
पुण्य–पाप मारां, शुभभाव करतां करतां धीमे धीमे धर्म थशे–
एवी झेरी मान्यतानुं अर्थात् राग–द्वेष–अज्ञानभावनुं वीतरागनां
निर्दोष वचनो विरेचन करावी दे छे. मोक्षार्थीने कोई पण बंधनभावनो
आदर न होवो जोईए.
आत्माना सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी विरुद्ध भावने कोई धर्म
कहे तो ते विकथा छे. सत्य वात अजाण्याने कठण लागे केम के पूर्वे कदी
सांभळी नथी, तथा कदाग्रहीने विरोधरूप पण लागे. परंतु सरळ अने
जिज्ञासु जीवो तो पोतानी शुद्धतानी वात सांभळी हर्षथी नाची ऊठे
छे, अने कहे छे के अहो! आवी वात अमे कदी पण सांभळी नथी.
आत्माने धर्म माटे पुण्यादि पराश्रयनी जरूर शरूआतमां पण
नथी. साची समजण विना व्रत, तप वगेरेथी पुण्य बांधी जीव नव
ग्रैवेयक सुधी गयो, छतां स्वतंत्र आत्मस्वभावने जाण्यो नहि, ने तेथी
तेनुं भवभ्रमण टळ्‌युं नहि.
जुओ, समयसार–प्रवचनो भाग १ पृ. ११६.