Atmadharma magazine - Ank 097
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १४ः आत्मधर्मः ९७
नथी आवतो, पण ज्ञान साथे वर्तता अनंत धर्मोना समूहरूप चैतन्यस्वभावनो पिंड आत्मा ज लक्षित थाय छे.
जेम ‘साकर गळी छे’ एम कहेतां साकरमां मेल, वासण वगेरेनो अभाव सिद्ध थाय छे परंतु
गळपणनी साथे रहेला साकरना धोळाश, वजन वगेरेनो अभाव नथी थतो; तेम ‘आत्मा ज्ञानमात्र छे’
एम कहेतां आत्मामां परनो अने विकारनो तो निषेध थाय छे पण ज्ञाननी साथे आत्माना जे अनंत
गुणो रहेला छे तेमनो कांई निषेध थई जतो नथी. ‘आत्मा ज्ञानमात्र छे’ एम कहेतां ज अस्तित्वधर्म
पण साथे आवी गयो, ज्ञान सिवाय देहादि परपणे आत्मा नथी–एवो नास्तित्वधर्म पण आवी गयो,
ज्ञान कायम टकनार छे एटले नित्यपणुं पण आव्युं ने क्षणेक्षणे पलटे छे तेथी अनित्यपणुं पण आव्युं,
ज्ञाननी साथे स्वच्छता, प्रभुता वगेरे धर्मो पण आव्या;–ए रीते ज्ञान कहेतां ज अनंत धर्मनो पिंड
लक्षमां आवे छे.
पर जीव बचे के न बचे ते तो तेनी स्वतंत्र क्रिया छे, ते ज्ञानने आधीन नथी. पण परनी दया
पाळवानो विकल्प ऊठे ते पण आत्मानी बहार छे, आत्माने ‘ज्ञानमात्र’ कहेतां ते विकल्पनो निषेध थई जाय
छे, पण आत्माना अनंतधर्मोमांथी कोई पण धर्मनो व्यवच्छेद थतो नथी.
ज्ञानमात्र भावनी साथे जे जे लक्षित थाय ते बधुं य आत्मा छे, अने ज्ञानमात्र भावनी साथे जे कांई
लक्षित न थाय ते बधुं य आत्माथी भिन्न छे एम जाणवुं....एटले के ज्ञानमात्र भावथी भिन्न एवा बधा परद्रव्य
अने पर भावोनुं लक्ष छोडीने ज्ञानादि अनंतधर्मना पिंडरूप आत्मद्रव्यने लक्षमां लेवुं.–आ ज, आत्माने
‘ज्ञानमात्र’ कहेवानुं तात्पर्य छे.
‘ज्ञानमात्र’ कहेतां एकलुं ज्ञान ज लक्षमां आवतुं नथी पण अनंत धर्मोना समूहरूप आखो आत्मा
ज लक्षमां आवे छे. आ कारणे ज आत्मानो ज्ञानमात्रपणे व्यपदेश कर्यो छे. ज्ञानमात्र कहेतां एकमां
अनेकपणुं आवी जाय छे एटले ‘ज्ञानमात्र’ कहेवाथी पण अनेकान्तमूर्ति आत्मा ज प्रसिद्ध थाय छे–एम
सिद्ध थयुं.
*
ए रीते, आत्माने ज्ञानमात्र कहेवा छतां पण ते ज्ञानलक्षण वडे अनंतधर्मवाळो आत्मा ज प्रसिद्ध
थाय छे–एम सिद्ध करीने, हवे आचार्यदेव ते अनंतधर्मवाळा आत्मानी केटलीक शक्तिओनुं वर्णन करवा
मांगे छे तेथी तेनी भूमिकारूपे प्रथम शिष्यद्वारा प्रश्न मूकावे छे अने पछी तेनो उत्तर आपतां ४७
शक्तिओनुं वर्णन करशे.
*
अहो! संतोनुं पराक्रम!!
‘परम पारिणामिक भावने प्रकाशनार श्री नियमसार परमागम अने तेनी टीकानी रचना छठ्ठा–
सातमा गुणस्थाने झूलता महा समर्थ मुनिवरो वडे द्रव्य साथे पर्यायनी एकता साधतां साधतां थई गई
छे. जेवां शास्त्र अने टीका रचायां छे तेवुं ज स्वसंवेदन पोते करी रह्या हता. परम पारिणामिकभावना
अंतर–अनुभवने ज तेमणे शास्त्रमां उतार्यो छे;–एकेक अक्षर शाश्वत, टंकोत्कीर्ण, परम सत्य. निरपेक्ष
कारण शुद्धपर्याय, स्वरूपप्रत्यक्ष सहजज्ञान वगेरे विषयोनुं निरूपण करीने तो मुनिवरोए अध्यात्मनी
अनुभवगम्य अत्यंत अत्यंत सूक्ष्म अने गहन वातने आ शास्त्रमां खुल्ली करी छे. सर्वोत्कृष्ट परमागम
श्री समयसारमां पण ते विषयोनुं आवुं खुल्ली रीते निरूपण नथी. अहो! जेम कोई पराक्रमी कहेवातो
पुरुष जंगलमांथी सिंहणनुं दूध दोही आवे तेम आत्मपराक्रमी महा मुनिवरोए जंगलमां बेठां बेठां
अंतरना अमृत दोह्यां छे. सर्वसंगपरित्यागी निर्ग्रंथोए जंगलमां रह्यां सह्यां सिद्ध भगवंतो साथे वातो
करी छे अने अनंत सिद्ध भगवंतो कई रीते सिद्धि पाम्या तेनो ईतिहास आमां मूकी दीधो छे.’
–पू. गुरुदेवश्री.
(नियमसारना उपोद्घातमांथी.)