नथी आवतो, पण ज्ञान साथे वर्तता अनंत धर्मोना समूहरूप चैतन्यस्वभावनो पिंड आत्मा ज लक्षित थाय छे.
एम कहेतां आत्मामां परनो अने विकारनो तो निषेध थाय छे पण ज्ञाननी साथे आत्माना जे अनंत
गुणो रहेला छे तेमनो कांई निषेध थई जतो नथी. ‘आत्मा ज्ञानमात्र छे’ एम कहेतां ज अस्तित्वधर्म
पण साथे आवी गयो, ज्ञान सिवाय देहादि परपणे आत्मा नथी–एवो नास्तित्वधर्म पण आवी गयो,
ज्ञान कायम टकनार छे एटले नित्यपणुं पण आव्युं ने क्षणेक्षणे पलटे छे तेथी अनित्यपणुं पण आव्युं,
ज्ञाननी साथे स्वच्छता, प्रभुता वगेरे धर्मो पण आव्या;–ए रीते ज्ञान कहेतां ज अनंत धर्मनो पिंड
लक्षमां आवे छे.
छे, पण आत्माना अनंतधर्मोमांथी कोई पण धर्मनो व्यवच्छेद थतो नथी.
अने पर भावोनुं लक्ष छोडीने ज्ञानादि अनंतधर्मना पिंडरूप आत्मद्रव्यने लक्षमां लेवुं.–आ ज, आत्माने
‘ज्ञानमात्र’ कहेवानुं तात्पर्य छे.
अनेकपणुं आवी जाय छे एटले ‘ज्ञानमात्र’ कहेवाथी पण अनेकान्तमूर्ति आत्मा ज प्रसिद्ध थाय छे–एम
सिद्ध थयुं.
मांगे छे तेथी तेनी भूमिकारूपे प्रथम शिष्यद्वारा प्रश्न मूकावे छे अने पछी तेनो उत्तर आपतां ४७
शक्तिओनुं वर्णन करशे.
छे. जेवां शास्त्र अने टीका रचायां छे तेवुं ज स्वसंवेदन पोते करी रह्या हता. परम पारिणामिकभावना
अंतर–अनुभवने ज तेमणे शास्त्रमां उतार्यो छे;–एकेक अक्षर शाश्वत, टंकोत्कीर्ण, परम सत्य. निरपेक्ष
कारण शुद्धपर्याय, स्वरूपप्रत्यक्ष सहजज्ञान वगेरे विषयोनुं निरूपण करीने तो मुनिवरोए अध्यात्मनी
अनुभवगम्य अत्यंत अत्यंत सूक्ष्म अने गहन वातने आ शास्त्रमां खुल्ली करी छे. सर्वोत्कृष्ट परमागम
श्री समयसारमां पण ते विषयोनुं आवुं खुल्ली रीते निरूपण नथी. अहो! जेम कोई पराक्रमी कहेवातो
पुरुष जंगलमांथी सिंहणनुं दूध दोही आवे तेम आत्मपराक्रमी महा मुनिवरोए जंगलमां बेठां बेठां
अंतरना अमृत दोह्यां छे. सर्वसंगपरित्यागी निर्ग्रंथोए जंगलमां रह्यां सह्यां सिद्ध भगवंतो साथे वातो
करी छे अने अनंत सिद्ध भगवंतो कई रीते सिद्धि पाम्या तेनो ईतिहास आमां मूकी दीधो छे.’