कारतकः २४७८ः १७ः
वाळुं छे. अने आ पांचमा बोलमां एम कहे छे के अस्तित्व–नास्तित्वनयथी जोतां आत्मद्रव्य क्रमशः
स्वपरचतुष्टयथी अस्तित्व–नास्तित्व–
केटलाक लोकोने आवुं ज्ञान करवामां तो कंटाळो आवे छे ने अंदर ध्यान करवा मांगे छे. पण आवा
धर्मोवडे आत्माने जाण्या विना ध्यान कोनुं करशे? आत्मानो महिमा केवो छे ते तो ज्ञानमां भास्यो नथी तो
ज्ञान तेमां ठरशे कयांथी? स्थूळ विकल्पो ओछा थाय अने अंदर सातावेदनीयने लीधे आनंद जेवुं लागे
एटले मानी ल्ये के मने घणी एकाग्रता थाय छे, खरेखर तेने एकाग्रता थती नथी पण मूढता वधती जाय
छे. मूढताने लीधे ते पोताना परिणामने पकडी शकतो नथी. हजी तत्त्वना निर्णयनुं पण ठेकाणुं नथी त्यां
एकाग्रता केवी ने आनंद पण केवो? मूढपणे रागमां एकाग्र थईने आनंद मानी रह्यो छे, ते धर्मी नथी पण
मिथ्याद्रष्टि छे.
अहीं तो आचार्यदेवे स्पष्टपणे वस्तुस्वरूप समजाव्युं छे. दरेक आत्मा स्वतंत्र जुदेजुदो, पोतपोताना
अनंतधर्मोवाळो छे. एकेक आत्मामां पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी अस्तिपणुं ने परना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–
भावथी नास्तिपणुं–एवा बंने प्रकार एक साथे छे.
शंकाः–एकलुं अस्तित्व ज कहो ने? एक अस्तित्वमां वळी द्रव्य–क्षेत्र–काळ ने भाव एवा चार प्रकार
केम पाडो छो? चार प्रकारने जाणवा जतां तो विकल्प थाय छे!
समाधानः–द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव एवा प्रकारो वस्तुमां ज छे, वस्तुना द्रव्यने, क्षेत्रने, काळने अने
भावने बराबर समजे तो ज वस्तुना अस्तित्वने मान्युं कहेवाय. द्रव्य, क्षेत्र, काळ ने भाव एवा चार प्रकारने
जाणवा ते तो वस्तुनुं यथार्थ ज्ञान छे, ते कांई विकल्पनुं नथी. ‘आत्मा छे’ एम माने पण तेनुं क्षेत्र केटलुं छे,
तेनी पर्यायो केवी छे ने तेनामां धर्मो केवा छे ते न ओळखे तो आत्मवस्तुनुं अस्तित्व ज यथार्थपणे ख्यालमां न
आवे. अस्तित्व कहेतां तेमां द्रव्य–क्षेत्र–काळ ने भाव ए चारे समाई जाय छे. माटे द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव
जाणवा जोईए.
द्रव्यः–आत्मा अनंतगुणपर्यायनो पिंड छे ते द्रव्य छे. बीजा अनंता आत्मा अने जड द्रव्योथी ते भिन्न छे.
क्षेत्रः–आत्मा पोताना असंख्यप्रदेशोवाळो छे ते तेनुं स्वक्षेत्र छे. जे क्षेत्रमां आत्मा छे ते ज क्षेत्रे बीजा
जीव तेम ज पुद्गल वगेरे द्रव्यो पण रहेलां छे पण दरेकनुं स्वक्षेत्र जुदुं छे.
काळः–एकेक समयनी पर्याय ते आत्मानो स्वकाळ छे. दरेक पर्याय पोताथी अस्तिरूप छे, ने बीजाथी
नास्तिरूप छे.
भावः–आत्मानी अनंतशक्तिओ ते आत्मानो स्व–भाव छे. आम पोताना स्वद्रव्य–क्षेत्र–काळ ने भावथी
आत्मा छे ने परना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी नथी; आवो अस्तित्व–नास्तित्व नामनो आत्मानो धर्म छे.
निगोदथी मांडीने सिद्ध सुधीनी आत्मानी कोईपण पर्याय ल्यो, ते दरेक पर्याय स्वथी छे ने परथी नथी.
निगोद पर्याय होय ते वखते ते पर्याय पोताथी छे ने परथी नथी, सिद्धपर्याय पण पोताथी छे ने परथी नथी,
साधकपर्याय पण पोताथी छे ने परथी नथी. बस! समय समयनी दरेक पर्याय स्वतंत्र छे. जो स्वतंत्र पर्याय न
मानो तो स्वकाळथी अस्तित्व ज सिद्ध थाय नहि.
निगोदनी पर्याय स्वतंत्र छे एम कह्युं तेनो अर्थ एम न समजवो के ते पर्याय पण पूरी छे. जेम
सिद्धपर्याय परिपूर्ण छे तेम कांई निगोदनी पर्याय पण परिपूर्ण नथी. निगोदनी पर्याय तो अनंतमा भागे
हीणी छे, ते पर्यायमां ज्ञान, दर्शन, वीर्य वगेरे अनंतमां भागे छे. पण अहीं तो एम कहेवुं छे के ते पर्याय
अत्यंत हीणी होवा छतां स्वकाळथी आखा द्रव्यना अस्तित्वने ते टकावी राखे छे, एटले ते एक पर्यायमां
आखा द्रव्यना अस्तित्वने सिद्ध करवानी ताकात छे. जो ते एक अंशने काढी नांखो तो द्रव्य ज सिद्ध थतुं
नथी. वर्तमान वर्तता स्वकाळ वगर द्रव्यनुं अस्तित्व ज कयांथी नक्की थशे? ‘अस्तित्व’ कहेतां तेमां
स्वकाळ भेगो आवी ज जाय छे.
निगोद पर्याय वखते पण आत्मा पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावरूप स्वचतुष्टयथी परिपूर्ण अस्तित्ववाळो
छे. जो के पर्यायनुं परिणमन पूरुं नथी पण अस्तित्व तो समये समये पूरुं ज छे. पछीनी विशेष पर्यायनी अपेक्षाए
वर्तमान पर्यायमां अधूरापणुं कहेवाय, पण वर्तमान समयनी अपेक्षाए तो ते समयनुं अस्तित्व