Atmadharma magazine - Ank 097
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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ः १८ः आत्मधर्मः ९७
स्वचतुष्टयथी पूरुं छे. ज्यारे जुओ त्यारे एक समयमां आत्मा पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ ने भावमां टकेलो छे.
आत्मा एक समय पण परनी अपेक्षाए टकयो नथी. दरेक द्रव्य पोताना स्वचतुष्टयमां ज रहेलुं छे.
आत्मा केवो छे तेनुं आ वर्णन चाले छे. आत्मा अनंत धर्मोवाळो छे, ने तेने जाणनार ज्ञानमां अनंत
नयो छे. अनंत धर्मोवाळा आत्माने स्वीकारवो तेमां ज्ञाननो अनंत पुरुषार्थ आवे छे. कोई ईंद्रियोथी के रागथी
अनंतधर्मोवाळा आत्मानो स्वीकार थई शकतो नथी, स्वसन्मुख थयेला ज्ञानमां ज अनंतधर्मोवाळा आत्मानो
यथार्थ स्वीकार थाय छे. साधक जीवनुं श्रुतज्ञानप्रमाण छे ते अनंत नयोवाळुं छे, अने ते स्वानुभवथी पोताना
अनंतधर्मात्मक आत्माने जाणे छे.
ज्ञानना पांच प्रकारमांथी श्रुतज्ञानमां ज नय होय छे, बीजा कोई ज्ञानमां नय होता नथी.
शंकाः–श्रुतज्ञानमां ज नय केम?–बीजा ज्ञानमां केम नहि?
समाधानः–मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय अने केवळ–ए पांच प्रकारना ज्ञानमां अवधि–मनःपर्यय अने
केवळज्ञान तो प्रत्यक्ष छे ने मति तथा श्रुतज्ञान परोक्ष छे; हवे नय ते परोक्षज्ञान छे. प्रत्यक्ष ज्ञाननो अंश तो
प्रत्यक्ष ज होय एटले तेमां नय न होय. केवळज्ञान पूर्ण स्पष्ट प्रत्यक्ष छे तेम ज अवधि अने मनःपर्ययज्ञान
पण पोतपोताना विषयमां प्रत्यक्ष छे, तेथी ते प्रत्यक्ष ज्ञानोमां तो परोक्षरूप नय होता नथी.
मतिज्ञान जो के परोक्ष छे, पण तेनो विषय अल्प छे, ते मात्र सांप्रतिक एटले वर्तमान पदार्थने ज
विषय करे छे, सर्वक्षेत्र अने सर्वकाळवर्ती पदार्थोने ते ग्रहण करतुं नथी तेथी तेमां य नय पडता नथी. केम के
पूरा पदार्थना ज्ञानपूर्वक तेमां भाग पाडीने जाणे तेने नय कहेवाय.
श्रुतज्ञान पोताना विषयभूत समस्त क्षेत्र–काळवर्ती पदार्थने परोक्षपणे ग्रहण करे छे, तेथी तेमां ज नय
पडे छे. श्रुतज्ञानमां पण जेटलुं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष थई गयुं छे तेटलुं तो प्रमाण ज छे, ने जेटलुं परोक्षपणुं रह्युं छे
तेमां नय पडे छे. श्रुतज्ञान सर्वथा परोक्ष ज नथी, स्वसंवेदनमां ते अंशे प्रत्यक्ष छे; एवा स्वसंवेदनपूर्वक ज
साचा नयो होय छे. श्रुतज्ञान केवळज्ञाननी जेम सकल पदार्थोने भले न जाणे, पण पोताना विषयने योग्य
पदार्थने सकल काळ–क्षेत्रसहित पूरो ग्रहण करे छे, ने तेमां एकदेशरूप नय होय छे.
आ रीते, जे ज्ञान परोक्ष होय अने सर्व क्षेत्र–काळवर्ती पदार्थने ग्रहण करतुं होय ते ज्ञानमां ज नय होय
छे;–एवुं तो श्रुतज्ञान छे तेथी तेमां ज नय होय छे. त्रण ज्ञानो तो प्रत्यक्ष छे–स्पष्ट छे, अने मतिज्ञाननो विषय
अल्प छे तेथी ते कोई ज्ञानमां नय होता नथी.
‘श्रुतज्ञान त्रिकाळी पदार्थने परोक्ष जाणे छे तेथी तेमां ज नय होय छे’ आम आचार्यदेवे कह्युं छे, तेमां
सूक्ष्म रहस्य छे; तेमांथी एवो न्याय पण नीकळे छे के द्रव्यार्थिकनय मुख्य छे ने पर्यायार्थिकनय गौण छे. त्रिकाळी
पदार्थनुं ज्ञान होय तो ज तेना अंशना ज्ञानने पर्यायार्थिकनय कहेवाय. ज्यारे द्रव्यार्थिकनयथी त्रिकाळी द्रव्यने
जाण्युं त्यारे तेना पर्यायरूप अंशने जाणनार ज्ञानने पर्यायार्थिकनय कहेवायो. त्रिकाळी द्रव्यनी सन्मुख थईने
तेने जाण्युं त्यारे ज तेना अंशना ज्ञानने व्यवहारनय कहेवायो. त्रिकाळीना ज्ञान वगर अंशना ज्ञानरूप
व्यवहारनय होय नहि. एटले ए वात नक्की थई के निश्चय विना व्यवहार नहि, द्रव्यना ज्ञान विना पर्यायनुं
ज्ञान नहि. व्यवहारनय तो अंशने जाणे छे, अंश कोनो? के त्रिकाळी पदार्थनो. तो ते त्रिकाळी पदार्थना ज्ञान
विना तेना अंशनुं ज्ञान यथार्थ थाय नहि. श्रुतज्ञान पण त्रिकाळीद्रव्यस्वभाव तरफ वळे तो ज तेमां नय होय
छे. त्रिकाळीना ज्ञान वगर एकली पर्यायने के भेदने जाणवा जाय तो त्यां पर्यायबुद्धिनुं एकांत थई जाय छे,
मिथ्यात्व थई जाय छे, तेमां नय होता नथी. आत्मा नित्य छे, शुद्ध छे–एवुं जाणनारा नयो त्रिकाळी पदार्थना
ज्ञान विना होय नहि. अने शुद्धता, नित्यता वगेरेने जाण्या वगर एकली अशुद्धताने के अनित्यताने जाणवा
जाय तो त्यां एकांतमिथ्यात्व थई जाय छे, एटले त्यां व्यवहारनय पण होतो नथी.
अहीं साधकना नयोनी वात छे. साधकने केवळज्ञान होतुं नथी; साधकना चार ज्ञानमां श्रुतज्ञाननुं
सामर्थ्य घणुं वधारे छे; अवधि–मनःपर्ययज्ञान प्रत्यक्ष होवा