विशेषोमां–रहेलुं जे नित्यनिरंजन टंकोत्कीर्ण शाश्वत एकरूप शुद्धद्रव्यसामान्य ते परमात्मतत्त्व छे. ते ज शुद्ध
अंतःतत्त्व, कारणपरमात्मा, परम पारिणामिकभाव वगेरे नामोथी कहेवाय छे. आ परमात्मतत्त्वनी उपलब्धि
अनादिकाळथी अनंत अनंत दुःखने अनुभवता जीवे एक क्षणमात्र पण करी नथी अने तेथी सुख माटेनां तेनां
सर्व झावां (द्रव्यलिंगी मुनिनां व्यवहार–रत्नत्रय सुध्धां) सर्वथा व्यर्थ गयां छे. माटे आ परमागमनो एकमात्र
उदे्श जीवोने परमात्मतत्त्वनी उपलब्धि अथवा आश्रय कराववानो छे. (‘हुं ध्रुव शुद्ध आत्मद्रव्यसामान्य छुं’
एवी सानुभव श्रद्धापरिणतिथी मांडीने परिपूर्ण लीनता सुधीनी कोई पण परिणतिने परमात्मतत्त्वनो आश्रय,
परमात्मतत्त्वनुं आलंबन, परमात्मतत्त्व प्रत्ये झोक, परमात्मतत्त्व प्रत्ये वलण, परमात्मतत्त्व प्रत्ये संमुखता,
परमात्मतत्त्वनी उपलब्धि,
जीवनी श्रद्धामां आव्यो छे. आत्माने तेना धर्मोद्वारा ओळखे तो ज तेनी साची श्रद्धा थाय; तेथी अहीं
आचार्यदेवे धर्मोनुं वर्णन कह्युं छे. तेमां सप्तभंगीमांथी ‘अस्तित्व–अवक्तव्य’ नामनो पांचमो भंग कह्यो; हवे
छठ्ठो भंग कहे छे, ४७ धर्ममां ते आठमो धर्म छेः
आत्मद्रव्य नास्तित्व–अवक्तव्यनये परद्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी तथा युगपद् स्वपरद्रव्य–क्षेत्र–काळ–
नास्तित्वधर्म कहेतां ‘आत्मा स्वपणे छे’ एवुं अस्तित्वनुं कथन बाकी रही जाय छे, नास्तित्व कही शकाय छे
पण बंने साथे कही शकाता नथी, माटे आत्मा ‘नास्तित्व–अवक्तव्य’ धर्मवाळो छे.
(९) अस्तित्व–नास्तित्व–अवक्तव्यनये आत्मानुं वर्णन
आत्मद्रव्य अस्तित्व–नास्तित्व–अवक्तव्यनये स्वद्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी, परद्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी
छे ते मूळमां जोई लेवुं.)
त्रण शब्दो आव्या तेथी तेना वाच्यरूप त्रण जुदा धर्मो न समजवा, पण त्रणेना वाच्यरूप एक धर्म छे एम
समजवुं.